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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व मालाएँ, ताम्र-पत्रों के लेख, प्रशस्तिलेख और दान-पत्र उपलब्ध हैं, वे अप्रतिबद्ध विहार के वास्तविक रहस्य को ही प्रकट कर रहे हैं। जिन अश्रुतपूर्व बातों का हमें पता तक नहीं था, वे आज हमें हस्तामलकवत् दिखाई देती हैं और हमारे पूर्वजों को आर्थिक शक्ति, धार्मिक शक्ति और आत्मिक शक्ति का भान कराके आश्चर्यनिमग्न करती हैं। इतना ही नहीं, वे हमारी हार्दिक भावनाओं में उत्तेजना शक्ति प्रगट करके वैसा ही बनने को उत्साहितकरती है। सीमाकी सोचो कि यह सब प्रभाव किसका है। कहना ही पड़ेगा कि क्षेत्रों का, उपाश्रयों का, श्रावकों का और श्राविकाओं का प्रेम रखने वाले परोपकारी आत्मदर्शी मुनि, सन्यासी, उपाध्याय और आचार्यों के अप्रतिबद्ध विहारों का ही प्रताप है। अगर उन्होंने उपकारदृष्टि को लक्ष्य में रखकर और प्रतिकूल या अनुकूल अनेक उपसों को सहकर प्रतिदेश या प्रतिनगरों में विहार न किया होता, तो हमारे पूर्वजों, हमारे प्रभावक तीर्थों और अद्वितीय ज्ञान-भण्डारों का गहनातिगहन इतिहास आकाशकुसुमवत् ही बन जाता।" छल उपर्युक्त कथ्य में बहुत ही सारपूर्ण बातें कही गई हैं। इस प्रथम भाग में नवम्बर ७ सन् १९२५ के दिन कुक्षी (म.प्र.) से काठियावाड़, गुजरात और मारवाड़ तक हुए लम्बे विहार के दरम्यान आए हुए गाँवों और गुढ़ा बालोतरा (राजस्थान) से २२ नवम्बर सन् १९२७ के दिन हुए लम्बे विहार के गाँवों की संक्षिप्त नोट इसमें दर्ज की गई है। गाँवों के नाम, उनमें जैनों के घर आदि की जानकारी दी गई है, जिससे विहार -काल में साधु-साध्वियों को सुविधा है। इस प्रकार के गाँवों की सूची में एक गाँव से दूसरे गाँव के मध्य की दूरी भी दे रखी है। इसमें गाँव, नगरों की संक्षिप्त जानकारी और तत्रस्थ स्थित जैन मंदिरों का विवरण दिया गया है। जहाँ शिलालेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तिलेख है, उसका उल्लेख करते हुए सम्बन्धित लेख भी दिया गया है। ये लेख इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। जहाँ तक प्रतिमा लेखों का प्रश्न है, प्रक्षालन के कारण अनेक प्रतिमालेख घिस जाते हैं और इस कारण वे अपठनीय हो जाते हैं। इस प्रकार संग्रह में लिपिबद्ध कर लेने से वे अमूल्य हो जाते हैं। अपने विहारदिग्दर्शन के प्रथम भाग में आचार्यश्री ने पालीताणा का विस्तार से वर्णन किया है। उस समय पालीताणा कस्बे में भीतर और बाहर छोटी-बडी बत्तीस जैन धर्मशालाएँ थीं। वर्तमान समय में तो काफी परिवर्तन हो चुका है। पवित्र तीर्थ श्री शत्रुजय का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस विवरण में देशी और विदेशी विद्वानों के तथ्य भी उद्धत किये गये हैं। यह विवरण आज भी उपयोगी है। पुस्तक में तीन परिशिष्ट भी दिये गये हैं। इनमें भी गांवों और जैन तीर्थों की जानकारी है। समग्र रूप से पुस्तक जहां पाद-विहारी जैन साध-साध्वियों के लिये उपयोगी है. व इतिहास के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी है। गायक FREE (२) श्री यतीन्द्र विहार - दिग्ददर्शन भाग २ - इस पुस्तक का प्रकाशन सन् १९३१ में हुआ था। इसमें फागुन शुक्ला २ वि.सं. १९८५ से आषाढ़ शुक्ला ६ सं. १९८६ तक तथा मगसर कृष्ण ५, वि.सं. १९८६ से ज्येष्ठ शुक्ला ५ वि.सं. १९८७ की अवधि में हुए विहार का विवरण है। इस भाग में चार परिशिष्ट भी हैं। परिशिष्ट नं. १ में संस्कृत प्रशस्ति लेख का हिंदी अनुवाद है। परिशिष्ट नं. २ में संडेरथगच्छीय Broad గడుసారం 7 7 parainoneindi a Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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