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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म श्वेताम्बर मत में अशुभ से शुभ, तुलनात्मक दृष्टि से अभीष्ट और कारणीय माना। धूप से छाया में खरा रहना बेहत माना। आगे सामग्री का पंचेन्द्रिय विषयों की पूर्ति में स्वयं (कुटुम्बियों ) के लिए उपयोग - उपयोग करने की अपेक्षा दान देना बेहतर पुण्य उपार्जन माना। पाप से पुण्य बेहतर माना । अशुभ से हटा अतः उसका बंध ठकने से संवर भी माना । स्थानकवासी गत में शुभभाव से उत्पन्न पुण्य कर्म को नाव की उपमा दी और जैसे नाव किनारे तक ले जाने में सहायक हैं वैसे शुभकर्म से उपार्जित वज्रऋषमनाराच संहनन वाला शरीर मोक्ष तक ले जाने से सहायक है औरजैसे तट पर जाते ही नाव छोड़ देने पर ही स्थल पर पांव रखा जा सकते हैं वैसे ही उस शरीरादि को छोड़ने पर ही मोक्ष रूपी स्थल, सिद्धशिला पर आत्मा ठहरती हैं। उपयोग आत्मा का लक्षण है। एक समय के लिए भी आत्मा उपयोग रहित नहीं होता है। उपयोग दो प्रकार का होता है अशुद्धोपयोग और शुद्धोपयोग । उपयोग जब आत्माकार होता है, आत्मा का उपयोग आत्मा में ही रहता है, आत्मा आत्मा में रहत है - ठहरती तो वह आत्मा शुद्धोपयोग कहलाती है। शुद्धात्मा, सिद्धात्मा का यही स्वरूप है। संसारी आत्मा के सदा अशुद्धपयोग रहता है। इसके दो प्रकार है - अशुभ और शुभ । उपयोग जब 'पर' में जातारमता-ठहरता है तब अशुद्धोपयोग कहलाता है। 'पर के निर्मित बाहर में अनन्त होते है और जब तक आत्मा के ( अनंतानुबंधी) मिथ्यात्व कर्म का उद्य रहता है तब तक ऐसे अशुभ भाव निरन्तर, प्रति समय, ऐसे रहते हैं कि आत्मा अनंतानुबंधी कषाय । राग में वर्तन करता है। मिथ्यात्व - दशा में भी कषायारग की मंदता होती है तब यह शुभभाव में रहता है जिससे पुण्यकर्म का बंध होता हैं, परन्तु साथ में मिथ्याल रहने से अनंत राग होने से भयंकर अशुभ भाव के कारण पाप का बंध भी होता रहता है। मिथ्यात्व दशा में बंदे पुण्य कर्म का उदय होने पर जीव चिन्तन मनन की क्षमता वाली गति-योनि क्षमता में आत है और मिथ्यात्कर्म के क्षय, सम्यकत्व के उदय में जड़-चेतन, आत्मापरमात्मा एवं पर का भेद ज्ञान कहलाता है । शुभ से शुभतर की उच्च श्रेणियों में चढ़ते चढ़ते ऐसा अपूर्वभाव आता है कि सम्यक्त्व प्रकट हो जाती है। सम्यक्त्व प्रकट होने पर भी असुभ शुभ दोनो भावों रहते हैं परन्तु अशुभ- रूपी कषाय । राग की हेयता दृढ़ हो जाने से ऐसा Pomm bandhdvidoef Jain Education International For Private अशुभ भाव नहीं होता कि अनन्त से बंधन हो । अशुभ भाव घटता और शुभ भाव बढ़ता है। मिथ्यात्व दशा में होने वाले शुभ और सम्यक्त्व - दशा में होने वाले शुभ में अनन्तगुना अन्तर हो जाता है। जब अनुराग अज्ञानी, रागी, संसारी सो नहीं होता । ज्ञानी, वीतरागी और शुद्धात्मा का स्मरण - चिन्तन-मनन- गुजानुराध-गुजस्मरणबहुमान - विनयभाव आता है । यह सहजभाव शुभतर, उत्कृष्ट, सातिश्य पुण्य उपार्जन करने वाला है। प्रश्न हैं, सम्यक्तत्व प्रकट होने के बाद वह शुभभाव में रहना चाहता है या नहीं ? यदि शुद्ध सम्यक्टत्व प्रकट हुई है तो 'चाह' ही मिट जाती है। कोई इच्छा, आकांक्षा, मनोकामना, वासना, तृष्णा नहीं रहती । यदि प्रीति भाव संसार-कार्य करने की इच्छा रहती है तो गुरू / सदगुरू / आत्मा के दर्शन ही नहीं हुए यह माना जाएगा। अप्रत्यारव्यानावरजीत के उदय से तीव्रोद्य से घर-परिवार संसार (शरीरादि) का कार्य करता है परन्तु उसमें अहंबुद्धि नहीं होती, किंचित मात्र भी राग करना नहीं चाहता, श्रेणी अनुसार जो रागसमता में हैं उसी के परिणाम स्वरूप रागादि होते हैं, करना नहीं है। अशुभ तो क्या शुभराग भी हेयानिकृष्ट/अनाचारणीय हो जाता है। यदि उसने परमात्वस्वरूप स्वात्मस्रूप जाना और माना है, उसी का दृढ़ता से श्रद्धाप्रतीति- सवसंवेदन है तो उसी शुद्दात्मस्वरूप का लड़प, मात्र मोक्ष का लक्ष्य हो जाता है। समंतदंसी न करेई पावं सम्यंवदृष्टि पाप नहीं करता । दृष्टि पुण्य-पाप बंद से हटकर 'मुक्त' पर चली जाए और फिर भी इच्छापूर्वक शुभाशुभ करके पुण्य-पाप का बंध ही करता रहे यही नहीं होता । सायवत्व प्रकट होने के बाद मिथ्यायाभाववृति नहीं होती, पूर्व कर्मों के संयोग से जो ब्रह्म में प्रवृत्ति होती है उसमें तादारम्य नहीं होता और ऐसा नहीं होता अर्थात् मिथ्याभाव वृत्ति (शुभाशुभ) नहीं टलती तो समझना कि सम्यक्त्व (या ज्ञान) हुआ ही नहीं है। ज्ञान का क्षयोपशय हुआ है (अर्थात् जब तक अंशमात्र भी ज्ञानावरणीय शेष है), दर्शन - विशुद्धि पूर्णता पर नहीं पहुंची है। (दर्शनावरणीय शेष है), अप्रत्यारव्यानावरणीय प्रत्यारव्यानावरणीयसंज्जवल कषाय, नाकेषाय अवशिष्ट है, अन्नराय कर्म टूटा नहीं है तब तक, छाती कर्मबंध है।' छाती का बंध 'है' ही नहीं, अशुभ भाव होने से छाती के बंध होता भी है। जब छाती कर्मों का बंध है तो अधानी (पुण्य-पापरूप) कर्मों का होना (विद्यामान होना) और Jarman RoushionsHDCNDAGHDAD Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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