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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म शुभ:पुन्यस्य अशुभ: पापस्य - सा.श्री महेन्द्रश्री जी म.सा. शुभस्य पुण्यम् 'जो जीव परमार्थ से ब्रह्म है, परमार्थ भूतज्ञानस्वरूप आत्मा तत्वार्थ सूत्रकार कहते हैं - शुभः पुम्यरस, अशुभः पापस्य का अनुभव नहीं करते वे जीव अज्ञान से पुण्य चाहते हैं व पुण्य ! शुभभाव से पुण्य बंध और अभ्रम भाव से पाप बंध होता है। संसार के गमन का कारण है तो भी वे जीव मोक्ष का कारण ज्ञानस्वरूप आत्मा को नहीं जानते। पुण्य को ही मोक्ष का कारण कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाह सुसलां कह त होदि मानते हैं। समयसार १५४ सुसलीलं जं संसारं पवे से दि. १११४५ कुदकुन्दाचार्य का कथन है ऐसा जगत जानता है। परन्तु परमार्थ दृष्टि से कहते हैं कि जो प्राणी 'जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान तो सम्यक्त्व है और उन । को संसार में ही प्रवेश कराता है वह कर्म शुभ अच्छा कैसे हो । जीवादिक पदार्थों का अधिगम, वह ज्ञान हैं तथा रागादि का त्याग वह चारित्र है - यही मोक्ष का मार्ग है।' समयसार १५५ सकता है ? टीकाकार अमृतन्द्राचार्य कहते हैं - जो शुभ अथवा अशुभ टीकाकार कहते हैं - 'मोक्ष के कारण निश्चय से सम्यक जीव का परिणाम है, वह केवल अज्ञान से एक ही है, उसके एक दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। जीवादिक पदार्थों के यथार्थ श्रद्धान होने पर कारण का अभेद है इसलिए कर्म एक ही है तथा शुभ स्वाभाव से ज्ञान का परिणाम सम्यक दर्शक है, जीवादिक पदार्थों अथवा अशुभ प्रदूगल का परिणाम केवल प्रदुगलमय है, इसलिए के ज्ञान स्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक ज्ञान है, तथा रागादि के एक ही है। शुभ अथवा अशुभ मोक्ष का और बन्ध का मार्ग ये दोनों त्याग स्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक् चारित्र है। इस कारण ज्ञान पृथक हैं, केवल जीवमय तो मोक्ष का मार्ग है और केवल प्रद्गलमय ही परमार्थ रूप से मोक्ष का कारण है।' बन्ध का मार्ग है। वे अनेक है, एक नहीं है। उनके एक न होने पर _ 'सम्यक्त्व मोक्ष का कारण है। उसके स्वभाव का रोकने भी केवल प्रद्गलमय बन्धमार्ग की आश्रितता के कारण आश्रय वाले मिथ्यात्व है, वह स्वयं कर्म ही हैं, उसके उदय से ही ज्ञान को के अभेद से कर्म एक ही है। मिथ्यादृष्टित्व है; ज्ञान भी मोक्ष का कारण है, उसके स्वभाव को हन्कन्दाचार्य आगे कहते हैं - जैसे लोहे की बेडी पृष्प को रोकने वाला प्रकट अज्ञान है, वह स्वयं कर्म ही, उसके उदय से बांधती है और सुवर्ण को भी बांधती है, इसी प्रकार शुभ अथवा । ज्ञान को अज्ञान है; और चारित्र मोक्ष का कारण है, उसके स्वभाव अशुभ किया हुआ कर्म जीव को बांधता ही है। इसलिए दोनों का प्रतिबंधक प्रकट कषाय है, वह स्वयं कर्म है, उसके उदय से कुशीलों से राग या संसर्ग का निषेध करते हैं। निश्चय से परमार्थ रूप ही अचरित्र्य है। क्योंकि कर्म के स्वयंमेव मोक्ष के कारण सम्यकदर्शन जीव नाम पदार्थ का स्वरूप यह है। जो शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञान चारित्र का तिरोयायित्व है, इसी कारण कर्म का प्रतिवेध किया ज्ञानी है - ये जिनके ज्ञान है उस स्वभाव में स्थित मुनि मोक्ष को गया है।' १६१ से १६३ प्राप्त होते हैं। 'मोक्ष के चाहनेवालों को यह समस्त कर्म ही त्याग ने योग्य टीकाकार कहते हैं ज्ञान ही मोक्ष का कारण है क्योंकि शुभ हैं। इस तरह इन समस्त ही कर्म को छोड़ने से पुण्य-पाप की तो अशुभ कर्मरूप है, वह बन्धक का कारण है। अत: मोक्ष की हेत्रता बात क्या है, कर्म सामान्य में दोनों ही आ जाते हैं....'कलश १०९ असिद्ध है। पश्चांतवर्ती सभ टीकाकारऐं, सभी आचार्यों और आध्यात्म मोक्ष का उपादान कारण आत्मा ही है. सो आत्मा का परमार्थ ग्राथ लेखकों ने इसी मत की पुष्टि की। दोनों मतों में मान्य तत्वार्थ से ज्ञान, स्वभाव है। ज्ञान है वह आत्मा ही है. आत्मा है वह जान ही सूत्र में, उनके टीकाकारों ने भी शुभभाव से पुण्य बंध होता है इसे है, इसलिए ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है। पुष्ट किया। wamwam-am-am-main-am-a-m-am-am-drame-on- mediasmodaramanandramudramamudmudeare Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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