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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - समाज एटां संस्कृति - पितृकुल में यह रिवाज नहीं था अत: उसने अपना विचार त्याग दिया । अत्याचार किये गये, जैन भिक्षुणी-संघ उसके लिए रक्षाकवच बना इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्योपरान्त स्वेच्छा से भी क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद न केवल वह पारिवारिक अपने देह-त्याग को अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को उत्पीड़न से बच सकती थी अपितु एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकती बाल-मरण या मूर्खता ही कहा है । सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन- थी । आज भी विधवाओं, परित्यक्ताओं, पिता के पास दहेज के अभाव, आगम-साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कहीं नहीं मिलता है। कुरूपता अथवा अन्य किन्हीं कारणों से अविवाहित रहने के लिये विवश यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं कुमारियों आदि के लिये जैन भिक्षुणी-संघ आश्रयस्थल है। जैन भिक्षुणीचन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिनमें संघ ने नारी-गरिमा और उसके सतीत्व दोनों की रक्षा की । यही कारण ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है किन्तु यह किसती-प्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैन-धर्म में कभी भी नहीं रही। अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न है । जैन धर्म और दर्शन महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् अपनी कुल-परम्परा में सती प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण अपने जीवित चिता में जल मरने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति निर्णय को बदलता हुआ देखते हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि होती है। इसके विपरीत जैनधर्म अपने कर्म-सिद्धान्त के प्रति आस्था जैनाचार्यों की दृष्टि सतीप्रथा विरोधी थी। जैन आचार्य और साध्वियाँ के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मों और मनोभावों विधवाओं को सती बनने से रोककर उन्हें संघ में दीक्षित होने की प्रेरणा के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । यद्यपि परवर्ती जैन कथा- देते थे। जैन-परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ आगामी अनेक भवों के जीवनसाथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा उदाहरणों की जैन कथा-साहित्य में कमी नहीं है । गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा । पर जैन धर्म सतीप्रथा का समर्थन नहीं करता । जैन धर्म के सती प्रथा आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी रहे हैं । व्याख्या- आधार शील का पालन ही है । जैन-परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध-साहित्य लिखा गया, उसमें के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। शालिभद्र की माता को मिलता है । तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल भद्रा को राजगृह की एक महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरूपित किया और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने गया है जिसके वैभव को देखने के लिये श्रेणिक भी उसके घर आया प्राण त्याग दिये ।६५ यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का था । आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जहाँ उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य और वैराग्य-प्रधान बना दिया कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। गया है । वस्तुः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या यह सत्य है कि जैन भिक्षुणी-संघ विधवाओं, कुमारियों और परित्यक्ताओं प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है । का आश्रय-स्थल था । यद्यपि जैन आगम-साहित्य एवं व्याख्या-साहित्य दोनों में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पति और पुत्रों के जीवित रहते गणिकाओं की स्थिति हुए भी पत्नी या माता भिक्षुणी बन जाती थी । ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी गणिकायें और वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक पति और पुत्रों को सम्मति से दीक्षित हुई थी किन्तु इनके अलावा ऐसे रही हैं । उन्हें अपरिगृहीता-स्त्री माना जाये या परिगृहीता इसे लेकर जैन उदाहरणों की भी विपुलता देखी जाती है जहाँ पत्नियाँ पति के साथ आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल में उपासक के लिये 'अथवा पति एवं पुत्रों की मृत्यु के उपरान्त विरक्त होकर संन्यास ग्रहण हम अपरिगृहीता-स्त्री से सम्भोग करने का निषेध देखते हैं। भगवान् कर लेती थीं। कुछ ऐसे उल्लेख भी मिले हैं जहाँ स्त्री आजीवन ब्रह्मचर्य महावीर के पूर्व पार्थापत्य-परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक को धारण करके या तो पितृगृह में ही रह जाती थी अथवा दीक्षित हो कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये बिना यदि जाती थी। जैन-परम्परा में भिक्षुणी संस्था एक ऐसा आधार रही है जिसने कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने हमेशा नारी को संकट से उबारकर न केवल आश्रय दिया है, अपितु उसे में कोई पाप नहीं है ।६६ ज्ञातव्य है कि पार्श्व की परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत सम्मान और प्रतिष्ठा का जीवन जीना सिखाया है। अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति जैन भिक्षुणी-संघ उन सभी स्त्रियों के लिये जो विधवा, माना जाता था, चूँकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था - परित्यक्ता अथवा आश्रयहीन होती थीं, शरणदाता होता था । अत: जैन इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था धर्म में सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला । जब भी नारी पर कोई कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोड़ा था ! 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SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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