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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ -समाज एवं संस्कृति - विवाहेतर यौन सम्बन्ध में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे । प्रसूत करना धार्मिक दृष्टि से सदैव ही अनुचित माना गया । वेश्यागमन और बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना परस्त्रीगमन दोनों को अनैतिक कर्म बताया गया । फिर भी न केवल रह सके तो उसे उपासक को सौंपकर अथवा भिक्षु-संघ को सौंपकर ऐसी गृहस्थ स्त्री-पुरुषों में अपितु भिक्षु-भिक्षुणियों में भी अनैतिक यौन सम्बन्ध भिक्षुणी पुनः भिक्षुणी-संघ में प्रवेश पा लेती थी। ये तथ्य इस बात स्थापित हो जाते थे, आगमिक व्याख्या-साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग के सूचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जैनसंघ सदैव सजग उल्लिखित हैं । जैन-आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक था। स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना-मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयी थीं । ज्ञाताधर्मकथा, उसकी टीका, आवश्यकचूर्णि नारी-रक्षा आदि में पार्थापत्य परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख बलात्कार किये जाने पर किसी को भिक्षुणी की आलोचना का मिलते हैं ।५६ ज्ञाताधर्मकथा में दौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में अधिकार नहीं था। इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षुणी की आलोचना वर्णित है । साधना काल में वह वेश्या को पाँच पुरुषों से सेवित देखकर करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था । नारी की मर्यादा की रक्षा स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है ।५७ निशीथचूर्णि के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था। निशीथर्ण में उल्लिखित में पुत्रियों और पुत्रवधु के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के कालकाचार्य को कथा में इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण उल्लेख हैं । आगमिक व्याख्याओं में मुख्यत: निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य से पालन करने वाला भिक्षुसंघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ सन्तानों को भिक्षुओं के निवास स्थानों पर छोड़ जाती थीं 1 आगम और जाता था । निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी (बहन सरस्वती) की शील-सुरक्षा के भिक्षुओं को उत्तेजित करती थीं उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था। उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती निशीथ, बृहत्कल्पभाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लेख हैं कि यदि थीं। आगमिक व्याख्याओं में इन परिस्थितियों में भिक्षु को क्या करना संघस्थ भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के लिये दुराचारी व्यक्ति की हत्या चाहिए, इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता करने का कार्य भी अपरिहार्य हो जाये तो ऐसी हत्या को भी उचित माना है । यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भावनाओं गया। नारी के शील की सुरक्षा करने वाले ऐसे भिक्षु को संघ में के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं किन्तु इस चर्चा का सम्मानित भी किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जल, उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी है । यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे जीवन का चाहिए । इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को विकृतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं जहाँ और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए । इसका पूर्ण अभाव हो। . इस प्रकार नारी की रक्षा को प्राथमिकता दी गई । आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों की वासना का शिकार होना पड़ा था। सती-प्रथा और जैनधर्म पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और निशीथ और बृहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है। रूपवती व्याख्या-साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला लिए इस प्रकार का वेश धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरुप प्रतीत दी गयी हो । यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके हो । भिक्षुणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है । भिक्षुणी-संघ में प्रवेश करने ने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था और उक्त उल्लेख के अनुसार वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षुणी उपाश्रय के बाहर उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गयी थीं ।६२ दण्ड लेकर बैठती थी । शील-सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं । पुनः इस आपवादिक आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन-साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता नदी रखता था । पुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्त उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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