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________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म . आदि अथवा जिनेन्द्रदेव के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं नहीं थी, जितनी कि शैव सम्प्रदाय की । निर्वाण के स्थल द्रव्यतीर्थ हैं, जबकि मोक्षमार्ग और उसकी साधना करने ३. तीसरे वर्ग में ऐसे तीर्थ का उल्लेख हआ है "जिसमें प्रवेश वाला चतुर्विधसंध भावतीर्थ है । इस प्रकार जैनधर्म में सर्वप्रथम तो तो कठिन है किन्तु साधना सुकर है।' भाष्यकार ने इस सन्दर्भ में जैनों जिनोपदिष्ट धर्म, उस धर्म का पालन करने वाले साधु-साध्वी, श्रावक के ही अचेल सम्प्रदाय का उल्लेख किया है । इस संघ में अचेलकता और श्राविकारूप चतुर्विधसंघ को ही तीर्थ और उसके संस्थापक को अनिवार्य थी, अत: इस तीर्थ को प्रवेश की दृष्टि से दुष्कर, किन्तु तीर्थङ्कर कहा गया है। यद्यपि परवर्ती काल में पवित्र स्थल भी द्रव्यतीर्थ अनुपालन की दृष्टि से सुकर माना गया है। के रूप में स्वीकृत किये गये हैं। ४. ग्रन्थकार ने चौथे वर्ग में उस तीर्थ का उल्लेख किया है जिसमें प्रवेश और साधना दोनों दुष्कर है और स्वयं इस रूप में अपने तीर्थ शब्द धर्मसंघ के अर्थ में ही सम्प्रदाय का उल्लेख किया है । यह वर्गीकरण कितना समुचित है प्राचीन काल में श्रमण-परम्परा के साहित्य में 'तीर्थ' शब्द का यह विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इतना निश्चित है कि साधनाप्रयोग धर्म-संघ के अर्थ में होता रहा है। प्रत्येक धर्मसंघ या धार्मिक मार्ग की सुकरता या दुष्करता के आधार पर जैन-परम्परा में विविध प्रकार साधकों का वर्ग तीर्थ कहलाता था, इसी आधार पर अपनी परम्परा से के तीर्थों की कल्पना की गई है और साधना मार्ग को ही तीर्थ के रूप भिन्न लोगों को तैर्थिक या अन्यतैर्थिक कहा जाता था। जैन-साहित्य में में ग्रहण किया गया है। बौद्ध आदि अन्य श्रमण-परम्पराओं को तैर्थिक या अन्य तैर्थिक के नाम इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में तीर्थ से तात्पर्य से अभिहित किया गया है । बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामबफलसुत्त मुख्य रूप से पवित्र स्थल की अपेक्षा साधना-विधि से लिया गया है और में भी निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र महावीर के अतिरिक्त मंखलिगोशालक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप मोक्षमार्ग को ही भावतीर्थ कहा गया है, अजितकेशकम्बल, पूर्णकाश्यप, पकुधकात्यायन आदि को भी तित्थकर क्योंकि ये साधक के विषय-कषायरूपी मल को दूर करके समाधि रूपी (तीर्थंकर) कहा गया है१२ । इससे यह फलित होता है कि उनके साधकों आत्मशान्ति को प्राप्त करवाने में समर्थ हैं। प्रकारान्तर से साधकों के वर्ग का वर्ग भी तीर्थ के नाम से अभिहित होता था। जैन-परम्परा में तो को भी तीर्थ कहा गया है । भगवतीसूत्र में तीर्थ की व्याख्या करते हुए जैनसंघ या जैन साधकों के समुदाय के लिए तीर्थ शब्द का प्रयोग स्पष्टरूप से कहा गया है कि चतुर्विध श्रमणसंघ ही तीर्थ है ।५ श्रमण, प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक यथावत् प्रचलित है । श्रमणी, श्रावक और श्राविकायें-इस चतुर्विध श्रमणसंघ के चार अंग हैं। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर की स्तुति करते हुए कहा है कि हे इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि प्राचीन जैन ग्रन्थों में तीर्थ शब्द को भगवन् ! आपका यह तीर्थ सर्वोदय अर्थात् सबका कल्याण करने संसार-समुद्र से पार कराने वाले साधन के रूप में ग्रहीत करके त्रिविध वाला है१३ । महावीर का धर्मसंघ सदैव ही तीर्थ के नाम से अभिहित साधना-मार्ग और उसका अनुपालन करने वाले चतुर्विध श्रमणसंघ को किया जाता रहा है। ही वास्तविक तीर्थ माना गया है। साधना की सुकरता और दुष्करता के आधार पर तीर्थों का निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ : वर्गीकरण जैनों की दिगम्बर-परम्परा में तीर्थ का विभाजन निश्चयतीर्थ और विशेषावश्यकभाष्य में साधना-पद्धति के सुकर या दुष्कर होने व्यवहारतीर्थ के रूप में हुआ है । निश्चयतीर्थ के रूप में सर्वप्रथम तो के आधार पर भी इन संघरूपी तीर्थों का वर्गीकरण किया गया है। आत्मा के शुद्ध-बुद्ध स्वभाव को ही निश्चयतीर्थ कहा गया है। उसमें कहा भाष्यकार ने चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-- गया है कि पंचमहाव्रतों से युक्त सम्यक्त्व से विशुद्ध, पाँच इन्द्रियों से १. सर्वप्रथम कुछ तीर्थ (तट) ऐसे होते हैं जिनमें प्रवेश भी संयत निरपेक्ष आत्मा ही ऐसा तीर्थ है जिसमें दीक्षा और शिक्षा रूप स्नान सुखकर होता है और जहाँ से पार करना भी सुखकर होता है। इसी प्रकार करके पवित्र हुआ जाता है । १६ पुनः निर्दोष सम्यक्त्व, क्षमा आदि धर्म, कुछ तीर्थ या साधक-संघ ऐसे होते हैं, जिनमें प्रवेश भी सुखद होता निर्मलसंयम, उत्तम तप और यथार्थज्ञान-ये सब भी कषायभाव से रहित है और साधना भी सुखद होती है । ऐसे तीर्थ का उदाहरण देते हुए और शान्तभाव से युक्त होने पर निश्चयतीर्थ माने गये हैं। इसी प्रकार भाष्यकार ने शैवमत का उल्लेख किया है, क्योंकि शैव सम्प्रदाय में मूलाचार में श्रुतधर्म को तीर्थ कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान के प्रवेश और साधना दोनों ही सुखकर माने गये हैं। माध्यम से आत्मा को पवित्र बनाता है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि वे २. दूसरे वर्ग में वे तीर्थ (तट) आते हैं जिनमें प्रवेश तो सभी साधन जो आत्मा के विषय-कषायरूपी मल को दूर कर उसे सुखरूप हो किन्तु जहाँ से पार होना दुष्कर या कठिन हो । इसी प्रकार संसार-समुद्र से पार उतारने में सहायक होते हैं या पवित्र बनाते हैं, वे कुछ धर्मसंघों में प्रवेश तो सुखद होता है किन्तु साधना कठिन होती है। निश्चयतीर्थ हैं। यद्यपि बोधपाहुड की टीका (लगभग ११वीं शती) में यह ऐसे संघ का उदाहरण बौद्ध संघ के रूप में दिया गया है । बौद्ध-संघ स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि 'जो निश्चयतीर्थ की प्राप्ति का कारण में प्रवेश तो सुलभतापूर्वक सम्भव था, किन्तु साधना उतनी सुखरूप है ऐसे जगत्-प्रसिद्ध मुक्तजीवों के चरणकमलों से संस्पर्शित ऊर्जयंत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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