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________________ जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा समग्र भारतीय परम्पराओं में 'तीर्थ' की अवधारणा को महत्त्व- द्रव्यतीर्थ तो मात्र बाह्यमल अर्थात् शरीर की शुद्धि करते हैं अथवा वे पूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी जैन-परम्परा में तीर्थ को जो महत्त्व दिया केवल नदी, समुद्र आदि के पार पहुंचाते हैं, अत: वे वास्तविक तीर्थ गया है वह विशिष्ट ही है, क्योंकि उसमें धर्म को ही तीर्थ कहा गया है नहीं हैं । वास्तविक तीर्थ तो वह है जो जीव को संसार-समुद्र से उस और धर्म-प्रवर्तक तथा उपासना एवं साधना के आदर्श को तीर्थङ्कर कहा पार मोक्षरूपी तट पर पहुँचाता है। विशेषावश्यकभाष्य में न केवल गया है। अन्य धर्म परम्पराओं में जो स्थान ईश्वर का है, वही जैन-परम्परा लौकिक तीर्थस्थलों (द्रव्यतीर्थ)की अपेक्षा आध्यात्मिक तीर्थ (भावतीर्थ) में तीर्थङ्कर का । वह धर्मरूपी तीर्थ का संस्थापक माना जाता है । दूसरे का महत्त्व बताया गया है, अपितु नदियों के जल में स्नान और उसका शब्दों में जो तीर्थ अर्थात् धर्म-मार्ग की स्थापना करता है, वही तीर्थङ्कर पान अथवा उनमें अवगाहन मात्र से संसार से मुक्ति मान लेने की धारणा है। इस प्रकार जैनधर्म में तीर्थ एवं तीर्थङ्कर की अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी का खण्डन भी किया गया है । भाष्यकार कहता है कि “दाह की शान्ति, हुई हैं और वे जैनधर्म की प्राण हैं। तृषा का नाश इत्यादि कारणों से गंगा आदि के जल को शरीर के लिए उपकारी होने से तीर्थ मानते हो तो अन्य खाद्य, पेय एवं शरीर-शुद्धि जैनधर्म में तीर्थ का सामान्य अर्थ करने वाले द्रव्य इत्यादि भी शरीर के उपकारी होने के कारण तीर्थ माने जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला जायेंगे किन्तु इन्हें कोई भी तीर्थरूप में स्वीकार नहीं करता है" १६ है। तीर्थ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया है - वास्तव में तो तीर्थ वह है जो हमारे आत्मा के मल को धोकर हमें तीर्यते अनेनेति तीर्थ: अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ संसार-सागर से पार कराता है । जैन-परम्परा की तीर्थ की यह कहलाता है । इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट अध्यात्मपरक व्याख्या हमें वैदिक परम्परा में भी उपलब्ध होती है। उसमें जिनसे पार जाने की यात्रा प्रारम्भ की जाती थी तीर्थ कहलाते थे; इस कहा गया है- सत्य तीर्थ है, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह भी तीर्थ है । समस्त अर्थ में जैनागम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ और प्रभास प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, सन्तोष, ब्रह्मचर्य का तीर्थ का उल्लेख मिलता है । पालन, प्रियवचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्य कर्म - ये सभी तीर्थ हैं । तीर्थ का लाक्षणिक अर्थ द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थ शब्द का अर्थ लिया - जैनों ने तीर्थ के जंगमतीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी जो संसार समुद्र से पार कराता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना किये हैं। इन्हें क्रमश: चेतनतीर्थ और जड़तीर्थ अथवा भावतीर्थ और करने वाला तीर्थङ्कर है । संक्षेप में मोक्ष-मार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। द्रव्यतीर्थ भी कह सकते हैं । वस्तुत: नदी, सरोवर आदि तो जड़ या द्रव्य आवश्यकनियुक्ति में श्रुतधर्म, साधना-मार्ग, प्रावचन, प्रवचन और तीर्थ हैं, जबकि श्रुतविहित मार्ग पर चलने वाला संघ भावतीर्थ है और तीर्थ- इन पाँचों को पर्यायवाची बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता वही वास्तविक तीर्थ है । उसमें साधुजन पार कराने वाले हैं, ज्ञानादि है कि जैन-परम्परा में तीर्थ शब्द केवल तट अथवा पवित्र या पूज्य स्थल रत्नत्रय नौका-रूप तैरने के साधन हैं और संसार-समुद्र ही पार करने की के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थ से वस्तु है। जिन ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि द्वारा अज्ञानादि सांसारिक भावों जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्र स्थल तक ही सीमित नहीं है । वे से पार हुआ जाता है, वे ही भावतीर्थ हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म-साधकों के समूह को ही तीर्थ-रूप में मल हैं, इनको जो निश्चय ही दूर करता है वही वास्तव में तीर्थ है। व्याख्यायित करते हैं । जिनके द्वारा क्रोधादि की अग्नि को शान्त किया जाता है वही संघ वस्तुत: तीर्थ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन जैन-परम्परा में तीर्थ का आध्यात्मिक अर्थ आत्मशुद्धि की साधना और जिस संघ में स्थित होकर यह साधना की जैनों ने तीर्थ के लौकिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ से ऊपर जा सकती है, वह संघ ही वास्तविक तीर्थ माना गया है। उठकर उसे आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया है। उत्तराध्ययनसूत्र में चाण्डालकुलोत्पन्न हरकेशी नामक महान् निर्ग्रन्थ साधक से जब यह पूछा 'तीर्थ के चार प्रकार गया कि आपका सरोवर कौन-सा है ? आपका शान्तितीर्थ कौन-सा है? विशेषावश्यकभाष्य में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख है, तो उसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि धर्म ही मेरा सरोवर है और ब्रह्मचर्य नाम-तीर्थ, स्थापनातीर्थ, द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । जिन्हें तीर्थ नाम दिया ही शान्ति-तीर्थ है जिसमें स्नान करके आत्मा निर्मल और विशुद्ध हो गया है वे नामतीर्थ हैं । वे विशेष स्थल जिन्हें तीर्थ मान लिया गया है, जाती है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सरिता आदि वे स्थापनातीर्थ हैं । अन्य परम्पराओं में पवित्र माने गये नदी, सरोवर dowdeoadindabardabudibedivoroubroadbudabudabudiaid- ११९]-Drdrobedroodwordsbrowondinaroortovodivororandibrar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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