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________________ -चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म होणायार अगीवत्थ वयणपसंगं खु णो भो ॥ ४८. वही, २ / ७७-७८ ४९. बाला बंयति एवं वेसो तित्वकराण एसोवि नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमों ॥ वहीं, श्रावक-धर्माधिकार, २.३ ५०. वरं वाही वरं मच्चू वरं दारिद्दसंगमो । वरं अरण्णेवासो य मा कुलीलाण संगमो ॥ हीणायारो वि वरं मा कुसीलएण संगमो भद्दं । जम्हा होणो अप्प नास सव्वं ह सील निहिं ॥ हु - Jain Education International वही, २ / ७६ आचार्य हेमचन्द्र भारतीय मनीषारूपी आकाश के एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं। विद्योपासक श्वेताम्बर जैन आचायों में बहुविध और विपुल साहित्यस्वष्टा के रूप में आचार्य हरिभद्र के बाद यदि कोई महत्त्वपूर्ण नाम है तो वह आचार्य हेमचन्द्र का ही है। जिस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने विविध भाषाओं में जैन-विद्या की विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य का सृजन किया था, उसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य का सृजन किया है। आचार्य हेमचन्द्र गुजरात की विद्वत्परम्परा के प्रतिभाशाली और प्रभावशाली जैन आचार्य हैं। उनके साहित्य में जो बहुविधता है वह उनके व्यक्तित्व एवं उनके ज्ञान की बहुविधता की परिचायिका है। काव्य, छन्द, व्याकरण, कोश, कथा, दर्शन, अध्यात्म और योग-साधना आदि सभी पक्षों को आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी सृजनधर्मिता में समेट लिया है। धर्मसापेक्ष और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार के साहित्य के सृजन में उनके व्यक्तित्व की समानता का अन्य कोई नहीं मिलता है। जिस मोढ़वणिक जाति ने सम्प्रति युग में गाँधी जैसे महान् व्यक्ति को जन्म दिया उसी मोढ़वणिक जाति ने आचार्य हेमचन्द्र को भी जन्म दिया था। यही २/१०१-१०२ ५१. विस्तार के लिए देखें सम्बोधप्रकरण गुरुस्वरूपाधिकार । इसमें ३७५ गाथाओं में सुगुरु का स्वरूप वर्णित है । ५२. नो अप्पण पराया गुरुणो कइया वि हुंति सङ्घाणं । जिण वयण रयणनिहिणो सव्वे ते वन्निया गुरुणो ॥ वही, गुरुस्वरूपाधिकरः ३ आचार्य हेमचन्द्र: एक युगपुरुष आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के धन्धुका नगर में श्रेष्ठि चाचिग तथा माता पाहिणी की कुक्षि से ई० सन् १०८८ में हुआ था। जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि हेमचन्द्र के पिता शैव और माता जैनधर्म की अनुवायी थीं। आज भी गुजरात की इस मोठ्वणिक जाति में वैष्णव और जैन दोनों धर्मों के अनुयायी पाए जाते हैं। अतः हेमचन्द्र के पिता चाचिग के शैवधर्मावलम्बी और माता पाहिणी के जैनधर्मावलम्बी होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में ऐसे अनेक परिवार रहे हैं जिनके सदस्य भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी होते थे। सम्भवतः पिता के शैवधर्मावलम्बी और माता के जैनधर्मावलम्बी होने के कारण ही हेमचन्द्र के जीवन ५३. लोकतत्त्वनिर्णय, ३२-३३ ५४. योगदृष्टिसमुच्चय, १२९ । ५५. जिननकोश, हरिदामोदर वेलंकर, भंडारकर आरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना १९४४, पृ० १४४ में धार्मिक समन्वयशीलता के बीज अधिक विकसित हो सके। दूसरे शब्दों में धर्मसमन्वय की जीवनदृष्टि तो उन्हें अपने पारिवारिक परिवेश से ही मिली थी। आचार्य देवचन्द्र जो कि आचार्य हेमचन्द्र के दीक्षागुरु थे, स्वयं भी प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने बालक चंगदेव (हेमचन्द्र के जन्म का नाम) की प्रतिभा को समझ लिया था, इसलिये उन्होंने उनकी माता से उन्हें बाल्यकाल में ही प्राप्त कर लिया। आचार्य हेमचन्द्र को उनकी अल्प बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत् रूप से उन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुतः हेमचन्द्र की प्रतिभा और देवचन्द्र के प्रयत्न ने बालक के व्यक्तित्व को एक महनीयता प्रदान की। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की भाँति बहुआयामी था। वे कुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोककल्याणकर्ता एवं अप्रतिम विद्वान् सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व के सभी पक्षों को उजागर कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी मैं कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। हेमचन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता यह सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य निष्ठा थी किन्तु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास है, हेमचन्द्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही परिचायक होती है। आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृति को जैनधर्म के अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचन्द्र ने भी 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' नामक समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा भी की। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिये कि [११४] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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