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________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म के माध्यम से निराकरण किया गया है । व्यंग्य और सुझावों के माध्यम ११. साधधर्मविधि से असम्भव और मनगढन्त बातों को त्यागने का संकेत दिया गया है। १२. साधुसामाचारी विधि खड्डपना के चरित्र और बौद्धिक विकास द्वारा नारी को विजय दिलाकर १३. पिण्डविधानविधि मध्यकालीन नारी के चरित्र को उद्घाटित किया गया है। १४. शीलाङ्गविधानविधि १५. आलोचनाविधि ध्यानशतकवृत्ति १६. प्रायश्चित्तविधि पूर्व ऋषिप्रणीत ध्यानशतक ग्रन्थ का गम्भीर विषय-आर्त, रौद्र, १७. कल्पविधि धर्म, शुक्ल- इन चार प्रकार के ध्यानों का सुगम विवरण दिया गया है। १८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि ध्यान का यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है। १९. तपविधि उपरोक्त पंचाशक अपने-अपने विषय को गम्भीरता से किन्तु यतिदिनकृत्य संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं । इन सभी पंचाशकों का मूल प्रतिपाद्य श्रावक इस ग्रन्थ में मुख्यतया साधु के दैनिक आचार एवं क्रियाओं का एवं मुनि-आचार से सम्बन्धित हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि जैन-परम्परा वर्णन किया गया है । षडावश्यक के विभिन्न आवश्यकों को साधु को में श्रावक और मुनि के लिए करणीय विधि-विधानों का स्वरूप उस युग अपने दैनिक जीवन में पालन करना चाहिए, इसकी विशद् विवेचना इस में कैसा था । ग्रन्थ में की गयी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य रहे हैं। उनके द्वारा की गई पञ्चाशक (पंचासग) साहित्य-सेवा न केवल जैन-साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में आचार्य हरिभद्रसूरि की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित अपना विशिष्ट स्थान रखती है । हरिभद्र ने जो उदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक है। इसमें उन्नीस पञ्चांशक हैं जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२. वृत्ति और निर्भयता अपनी कृतियों में प्रदर्शित की है, वैसी उनके पूर्ववर्ती तथा शेष में ५०-५० पद्य हैं । वीरगणि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के शिष्य अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन-जनेतर विद्वान् ने शायद ही प्रदर्शित की यशोदेव ने पहले पञ्चाशक पर जैन महाराष्टी में वि. सं० ११७२ में एक हो । उन्होंने अन्य दर्शनों के विवेचन की एक स्वस्थ परम्परा स्थापित चर्णि लिखी थी जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार की तथा दार्शनिक और योग-परम्परा में विचार एवं वर्तन की जो पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है, जिसमें सम्यक्त्व के प्रकार, उसके यतना, अभिनव दशा उद्घाटित की वह विशेषकर आज के युग के असाम्प्रदायिक अभियोग और दृष्टान्त के साथ-साथ मनुष्य-भव की दुर्लभता आदि एवं तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में अधिक व्यवहार्य है । अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। सामाचारी विषय का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है । आवश्यक चूर्णि के देशविरति में १. आवश्यक-टीका की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने लिखा हैजिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहाँ पर “समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका । कृति: भी नौ द्वारों का उल्लेख है। सिताम्बराचार्यजिनभट- निगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकापंचाशकों में जैन-आचार और विधि-विधान के सम्बन्ध में चार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी - महत्तरासूनोरल्पमतेराचार्य अनेक गम्भीर प्रश्नों को उपस्थित करके उनके समाधान प्रस्तुत किये हरिभद्रस्य । गये हैं । निम्न उनीस पंचाशक उपलब्ध होते हैं । जाइणिमयहरिआए रइया एएउ धम्मपुत्तेण । १. श्रावकधर्मविधि हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छामाणेण ।। २. जिनदीक्षाविधि -उपदेशपद की अन्तिम प्रशस्ति ३. चैत्यवन्दनविधि ३. चिरं जीवउ भवविरहसूरि ति । -कहावली, पत्र ३०१अ ४. पूजाविधि ४. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी, पृ० ४० ५. प्रत्याख्यानविधि' ५. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४। ६. स्तवनविधि ६. वही, प्रस्तावना, पृ० १९।। ७. जिनभवननिर्माणविधि ७. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ । ८. जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि ८. वही, पृ० ४७ । ९. यात्राविधि ९. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४ । १०. उपासकप्रतिमाविधि १०. वही, पृ० १९ । के कारण इसमें सन्दर्भ २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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