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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हमें अनेक अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध भरण-पोषण का भी उल्लेख है । इससे भी यही लगता है कि इस काल होते हैं । इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर प्रो० आदि नाथ तक यापनीय मुनि पूर्णतया मठाधीश हो चुके थे और मठों में ही उनके नेमिनाथ उपाध्ये ने 'अनेकान्त वर्ष २८, किरण-१ में यापनीय-संघ के आहार की व्यवस्था होती थी। इसके पश्चात् यापनीय संघ से सम्बन्धित सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रस्तुत विवेचन का आधार उनका एक अन्य दानपत्र पूर्वी चालुक्यवंशीय 'अम्मराज द्वितीय' का है५१ । वही लेख है किन्तु हमने इन अभिलेखों के मुद्रित रूपों को देखकर इसने कटकाभरण जिनालय के लिए मलियपुण्डी नामक ग्राम दान में अपेक्षित सामग्री को जोड़ा भी है। दिया था । इस मन्दिर के अधिकारी यापनीय-संघ 'कोटिमडुवगण' यापनीय-संघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अभिलेख हमें नन्दिगच्छ के गणधर सदृश मुनिवर जिननन्दी के प्रशिष्य मुनिपुंगव 'कदम्बवंशीय' मृगेशवर्मन् ई० सन् (४७५-४९०) का प्राप्त होता है। दिवाकर के शिष्य जिनसदृश गुणसमुद्र महात्मा श्री मन्दिर देव थे। इस अभिलेख में यापनीय, निम्रन्थ एवं कुर्चकों को भूमिदान का इससे पूर्व के अभिलेख में जहाँ यापनीय नन्दीसंघ ऐसा उल्लेख है, उल्लेख मिलता है। इसी काल के एक अन्य अभिलेख (ई० सन् वहाँ इसमें यापनीय-संघ नन्दीगच्छ ऐसा उल्लेख है। ४९७ से ५३७ के मध्य) दामकीर्ति, जयकीर्ति प्रतीहार, निमित्तज्ञान यापनीय-संघ से ही सम्बन्धित ई० सन् ९८० का चालुक्यवंश पारगामी आचार्य बन्धुसेन और तपोधन शास्त्रागम खिन्न कुमारदत्त का भी एक अभिलेख मिलता है५२ । इस अभिलेख में शान्तिवर्मा द्वारा नामक चार यापनीय आचार्यों एवं मुनियों के उल्लेख है । इसमें निर्मित जैन मन्दिर के लिए भूमिदान का उल्लेख है, इसमें यापनीय-संघ यापनीयों को तपस्वी (यापनीयास्तपस्विनः) तथा सद्धर्ममार्ग में स्थित के काण्डूरगण के कुछ साधुओं के नाम दिये गये हैं यथा - बाहुबलिदेवचन्द्र, (सद्धर्ममार्गस्थित) कहा गया है । आचार्यों के लिए 'सूरि' शब्द का रविचन्द्रस्वामी, अर्हनन्दी, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, मौनिदेव और प्रभाचन्द्रदेव प्रयोग हुआ है । इन दोनों अभिलेखों से यह भी सूचना मिलती है कि आदि । इसमें प्रभाचन्द्र को शब्द विद्यागमकमल, षट्तर्काकलङ्क कहा राजा ने मन्दिर की पूजा, सुरक्षा और दैनिक देखभाल के साथ-साथ गया है । ये प्रभाचन्द्र - 'प्रमेय कमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमदचन्द्र' के अष्टाह्रिका महोत्सव एवं यापनीय साधुओं के भरण-पोषण के लिए दान कर्ता प्रभाचन्द्र से भिन्न यापनीय आचार्य शाकटायन के 'शब्दानुशासन' दिया था, इससे यह फलित होता है कि इस काल तक यापनीय-संघ पर 'न्यास' के कर्ता हैं। के मुनियों के आहार के लिए कोई स्वतन्त्र व्यवस्था होने लगी थी और प्रो० पी० बी० देसाई ने अपने ग्रन्थ में सौदत्ति (बेलगाँव) के भिक्षावृत्ति गौण हो रही थी अन्यथा उनके भरण-पोषण हेतु दान दिये एक अभिलेख की चर्चा की है जिसमें यापनीय-संघ के काण्डूरगण के जाने के उल्लेख नहीं होते. । इसके पश्चात् देवगिरि से कदम्बवंश की शुभचन्द्र प्रथम, चन्द्रकीर्ति, शुभचन्द्र द्वितीय, नेमिचन्द्र प्रथम, कुमार दूसरी शाखा के कृष्णवर्मा के (ई० सन् ४७५-४८५) काल का कीर्ति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय के उल्लेख हैं५३ । इसी प्रकार अभिलेख मिलता है, जिसमें उसके पुत्र युवराज देववर्मा द्वारा त्रिपर्वत यापनीय-संघ से सम्बन्धित ई० सन् १०१३ का एक अन्य अभिलेख के ऊपर के कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवान के चैत्यालय की मरम्मत, पूजा 'बेलगाँव' की टोड्डावसदी की नेमिनाथ की प्रतिमा की पादपीठ पर और महिमा के लिए यापनीय संघ को दिये जाने का उल्लेख है ।८ इस मिला है, जिसे यापनीय-संघ के पारिसय्य ने ई० सन् १०१३ में अभिलेख के पश्चात् ३०० वर्षों तक हमें यापनीय-संघ से सम्बन्धित निर्मित करवाया था। इसी प्रकार सन् १०२० ई० के 'रवग' लेख कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता जो अपने आप में एक विचारणीय में प्रख्यात यापनीय-संघ के 'पुत्रागवृक्षमूलगण के प्रसिद्ध उपदेशक तथ्य है । इसके पश्चात् ई० सन् ८१२ का राष्ट्रकूट राजा प्रभूतवर्ष का आचार्य कुमारकीर्ति पण्डितदेव को 'हुविनवागे' की भूमि के दान का एक अभिलेख प्राप्त होता है । इस अभिलेख में यापनीय आचार्य उल्लेख है।५५ ई० सन् १०२८-२९ के हासुर के अभिलेख में कुविलाचार्य के प्रशिष्य एवं विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति का यापनीय-संघ के गुरु जयकीर्ति को सुपारी के बाग और कुछ घर मन्दिर उल्लेख मिलता है । इस अभिलेख में यापनीय नन्दीसंघ और पुत्रागवृक्ष को दान में देने के उल्लेख हैं ।५६ 'हुली' के दो अभिलेख जो लगभग मूलगण एवं श्री कित्याचार्यान्दय का भी उल्लेख हुआ है । इस ई० सन् १०४४ के हैं उनमें यापनीय-संघ के पुन्नागवृक्ष मूलगण के अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि आचार्य अर्ककीर्ति ने शनि के बालचन्द्रदेव भट्टारक७ का तथा दूसरे में रामचन्द्रदेव का उल्लेख है। दुष्प्रभाव से ग्रसित पुलिगिल देश के शासक विमलादित्य का उपचार इसी प्रकार ई० सन् १०४५ के मुगद (मैसूर) लेख में भी यापनीय-संघ किया था। इस अभिलेख से अन्य फलित यह निकलता है कि ईसा की के कुमुदिगण के कुछ आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं - श्रीकीर्ति नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यापनीय आचार्य न केवल मठाधीश बन गये गोरवडि, प्रभाशशांक, नयवृत्तिनाथ, एकवीर, महावीर, नरेन्द्रकीर्ति थे अपितु वे वैद्यक और यन्त्र-मन्त्र आदि का कार्य भी करने लगे थे। नागविक्कि, वृत्तीन्द्र, निरवद्यकीर्ति, भट्टारक, माधवेन्दु, बालचन्द्र, लगभग ९वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में जो कि चिंगलपेठ, रामचन्द्र, मुनिचन्द्र, रविकीर्ति, कुमारकीर्ति, दामनंदि, विद्यगोवर्धन, तमिलनाडु से प्राप्त हुआ है, यापनीय संघ और कुमिलिगण के महावीराचार्य दामनन्दि वड्डाचार्य आदि ।५९ यद्यपि प्रोफेसर उपाध्ये ने इन नामों में से के शिष्य अमरमुदलगुरू का उल्लेख है जिन्होंने देशवल्लभ नामका एक कुछ के सम्बन्ध में कृत्रिमता की सम्भावना व्यक्ति की है किन्तु उनका जिनमन्दिर बनवाया था । इस दानपत्र में यापनीय-संघ के साधुओं के आधार क्या है, यह उन्होंने अपने लेख में स्पष्ट नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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