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________________ --यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म . का शिष्य बताया गया है । सम्भावना यह हो सकती है कि शिवभूति परम्परा से मतभेद के जो उल्लेख मिलते हैं उनसे यही फलित होता है और आर्यकृष्ण गुरु-शिष्य न होकर गुरु बन्धु हो । किन्तु इससे कि उनका मुख्य विवाद मुनि के ही सचेल और अचेल होने के सम्बन्ध शिवभूति और आर्यकृष्ण के समकालिक होने में कोई बाधा नहीं आती में था । स्त्री-मुक्ति और कवलाहार के सम्बन्ध में इनका कोई मतभेद है । यह भी सत्य ही है कि उपधि के प्रश्न को लेकर शिवभूति और नहीं था । विशेषावश्यकभाष्य में इन्हें आचाराङ्ग आदि आगमों को आर्यकृष्ण के बीच यह विवाद हुआ होगा और शिवभूति के शिष्यों स्वीकार करने वाला माना गया है। ये दिगम्बर-परंपरा के समान न कौडिन्य और कोट्यवीर से अचेलता की समर्थक यह धारा पृथक् रूप तो स्त्री-मुक्ति और केवली-मुक्ति का निषेध करते थे और न जैनागमों का से प्रवाहित होने लगी। पूर्णत: विच्छेद ही स्वीकार करते थे । मात्र यह कहते थे कि आगमों में जो वस्त्र-पात्र के उल्लेख हैं वे आपवादिक स्थिति के हैं । इस प्रकार ये यापनीयों का उत्पत्ति-स्थल स्त्री-मुक्ति और केवली-कवलाहार की विरोधी और आगमों को विच्छिन्न यापनीयों अथवा बोटिकों के उत्पत्ति-स्थल को लेकर श्वेताम्बर मानने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न हैं । इस सम्बन्ध में पं० और दिगम्बर परम्पराएँ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखती हैं । श्वेताम्बरों के दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० ढाकी और मेरा लेख द्रष्टव्य है। अनुसार उनकी उत्पत्ति रथवीरपुर नामक नगर में हुई, यह नगर मथुरा के यदि हम बोटिकों की इस मान्यता की तुलना यापनीय-परम्परा समीप उत्तर भारत में स्थित था । जबकि दिगम्बरों के अनुसार इनका से करते हैं तो दोनों में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। यापनीयों का उत्पत्ति स्थल दक्षिण भारत में उत्तर पश्चिमी कर्णाटक में स्थित करहाटक जो भी साहित्य उपलब्ध है, उससे भी स्पष्ट रूप से यही निष्कर्ष था२९ । इस प्रकार श्वेताम्बरों के अनुसार वे उत्तर में और दिगम्बरों के निकलता है कि यापनीय यद्यपि मुनि की अचेलता पर बल देते थे अनुसार दक्षिण में उत्पन्न हुए । प्रश्न यह है कि उनमें से कौन सत्य है। किन्तु दूसरी ओर वे स्त्री-मुक्ति, अन्य तैर्थिकों (दूसरी धर्म-परम्परा) की श्वे० परम्परा के पक्ष में तथ्य यह है कि उसमें इस विभाजन को मुक्ति, केवलीकवलाहार और आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आर्यकृष्ण और शिवभूति से सम्बन्धित किया है - इन दोनों के उल्लेख कल्प, व्यवहार, मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान आदि अर्धमागधी आगमों कल्पसूत्र स्थविरावली में उपलब्ध है । पुन: आर्यकृष्ण की अभिलेख को स्वीकार करते थे। वे दिगम्बर-परम्परा के समान अंग आदि आगमों सहित मूर्ति भी मथुरा से उपलब्ध है जो वस्त्रखण्ड कलाई पर डालकर के सर्वथा विच्छेद की बात नहीं मानते हैं, इस परम्परा में आगे चलकर अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं । अस्तु, आवश्यकमूलभाष्य का उत्तर जिन स्वतन्त्र ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का निर्माण हुआ उनमें अर्धमागधी भारत में उनकी उत्पत्ति का संकेत प्रामाणिक है । जहाँ तक रत्ननन्दी के आगम-साहित्य की सैकड़ों गाथायें और उद्धरण प्राप्त होते हैं । अत: दक्षिण भारत में इनकी उत्पत्ति के उल्लेख का प्रश्न है, वह इसलिए उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पूर्णरूपेण सुनिश्चित है कि यापनीय और अधिक प्रामाणिक नहीं है क्योंकि प्रथम तो वह उनकी उत्पत्ति १२०० बोटिक दोनों सम्प्रदाय एक ही हैं । सम्भवत: उन्हें 'बोटिक' श्वेताम्बरों वर्षों बाद जब यह सम्प्रदाय मरणासन्न स्थिति में था तब लिखा गया - ने और 'यापनीय' नाम दिगम्बरों ने प्रदान किया था। क्योंकि श्वेताम्बर जबकि आवश्यकमूलभाष्य उनकी उत्पत्ति के लगभग २०० वर्ष पश्चात् ग्रन्थों के अतिरिक्त उनके लिये कहीं भी बोटिक नाम का उल्लेख नहीं निर्मित हो चुका था । दूसरे उस कथानक की पुष्टि के अन्य कोई है । उस समय वे अपने आपको क्या कहते थे? यह शोध का विषय साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है । दक्षिण भारत में उनकी है । यद्यपि अभिलेखीय साक्ष्यों से यह निश्चित होता है कि पांचवीं उत्पत्ति बताने का मूल कारण यह है कि यापनीयों का दिगम्बर-परम्परा शताब्दी से वे अपने लिये 'यापनीय' शब्द का प्रयोग करने लगे थे। से साक्षात्कार दक्षिण भारत में ही हुआ था । अभिलेखों में सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयोग मृगेशवर्मन के हल्सी के अभिलेख में हुआ है जो पाँचवीं शती का है। क्या यापनीय और बोटिक एक हैं? . अत: इसके पश्चात् इनके लिए यापनीय शब्द प्रयोग होने लगा होगा जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं प्राचीन श्वेताम्बर- और आवश्यक मूलभाष्य में प्रयुक्त बोटिक केवल श्वेताम्बर आगमिक साहित्य में यापनीय संघ का उल्लेख हरिभद्र के पूर्व उपलब्ध नहीं होता व्याख्या-साहित्य तक ही सीमित रह गया । है, उसके पूर्व हमें जो उल्लेख मिलता है, वह बोटिकों का ही है, अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि बोटिक कौन थे ? क्या यापनीय-संघ के अभिलेखीय साक्ष्य इनका यापनीयों से कोई सम्बन्ध था ? इनकी परम्परा क्या थी ? यापनीय-संघ और उसके आचार्यों, भट्टारकों एवं उपासकों के बोटिकों की उत्पत्ति-कथा से ही यह स्पष्ट है कि इन्होंने जिनकल्प का सम्बन्ध में हमें जो सूचनायें उपलब्ध होती हैं, उनके दो आधार हैं- एक विच्छेद स्वीकार नहीं किया था और वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के साहित्यिक उल्लेख और दूसरे अभिलेखीय साक्ष्य । इन साहित्यिक लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया । शिवभूति द्वारा अपनी बहन उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में भी अभिलेखीय साक्ष्य अधिक उत्तरा को वस्त्र रखने की अनुमति देना यह भी सूचित करता है कि इस प्रामाणिक कहे जा सकते हैं क्योंकि प्रथम तो वे समकालिक होते हैं, सम्प्रदाय में साध्वियाँ सवस्त्र रहती थीं । इस सम्प्रदाय के तत्कालीन दूसरे इनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना अत्यल्प होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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