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________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व न यह सर्वमान्य सत्य है कि मानव जन्म दुर्लभ है। इस प्रवचनसंग्रह का प्रथम प्रवचन ही 'माणुसो जन्मों दुलहों ही' है। मानवजन्म की इस दुर्लभता को हर समय और हर काल में किया जाता है। अपने प्रवचन में आपने ने फरमाया की संसार में जिस प्रकार चिंतामणि रत्न, अखंड साम्राज्य, स्वाधीन समृद्धियाँ और वांछित सुखोपभोग बिना भाग्य के नहीं मिलते, उसी प्रकार 'मणुअंत बहुविहभव भमण समृद्धि कहमवि लद्धं' अनेक भवों के संचित महान् पुण्योदय के बिना मनुष्य जन्म भी नहीं मिल सकता। चौरासी लाख जीवयोनि हैं, उनमें मनुष्य भव सबसे अधिक महत्त्व और उत्तमता रखता है। विश्वज्ञाता प्रभु श्री महावीर स्वामी ने स्पष्ट फरमाया है कि चुल्लक, पाशक आदि दश दृष्टांत किसी तरह सिद्ध किए जा सकते हैं, परन्तु विषयपिपासा की आशा में जो लब्ध मनुष्य जन्म को खो दिया, वह फिर लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मिलता।' (पृष्ठ १५) मनुष्य जन्म का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए आपने ने आगे कहा है - “आहार (भोजन), निद्रा (नींद लेना), भय (डरना) और मैथुन (स्त्रीभोग करना) ये चार बातें मनुष्यों और पशुओं में समान ही हैं, परन्तु मनुष्य में विशेषता यही है कि वह मनुष्यता (विवेक बल) से सार-असार, हित-अहित और सत्यअसत्य वस्तुओं को भली प्रकार पहचान सकता है और उनको कार्यरूप में परिणत कर सकता है। जिस मनुष्य में यह मनुष्यता नहीं है, वह पशुओं से भी गया गुजरा है।" (पृष्ठ १६-१७)। मानव देह की उपयोगिता के विषय में आपने ने फरमाया कि पशुओं का शरीर तो मरने के बाद भी काम आता है, किन्तु मनुष्य का शरीर किसी भी काम नहीं आता है। आपने के ये विचार आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक हैं। इस प्रवचनसंग्रह का तीसरा प्रवचन 'सुख-दुःख के कारण' है। प्रवचन शीर्षक के अनुरूप है और यह प्रवचन हर समय प्रासंगिक है। कारण यह कि सुख-दुःख के लिए जिन बातों का आपने ने उल्लेख किया है, वे मानव प्रवृत्ति में सदैव ही विद्यमान रहने वाली हैं। सुख और दुःख मनुष्य के कर्म पर आधृत हैं। चतुर्थ प्रवचन है - 'सत्य और उसकी व्याख्या' इसमें आपने ने फरमाया कि सत्य वक्ता के पास सुखसमृद्धियाँ सदैव कायम रहती हैं और जिस प्रकार आयुष्य पूर्ण हो जाने के बाद चेतना नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार असत्य बोलने वाले की सभी सुख-समृद्धियाँ बर्बाद हो जाती हैं। प्रवचन के अंत में आपने ने स्पष्ट | किया कि जिसमें स्वार्थ-हीनता, सहनशीलता और निर्दोष-निस्पृहता रहती है, उसी में सत्य रहता है और उसी का कथन सत्य रूप से संसार में परिणत होता है। (पृष्ठ ३१) अपने छठे प्रवचन में आपने ने उत्तम पुरुषों की पहचान पर प्रकाश डाला है। साधु जीवन पर आचार्य देन ने साधुओं की परीक्षा नाम के प्रवचन में फरमाया है कि हर परिस्थिति में जो खरा उतरे, वही सच्चा साधु है, उसका साधुजीवन सार्थक है। इस प्रवचन के आधार पर वर्तमान में रहते हुए साधुओं के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है और अन्तर को भी देखा जा सकता है। विनय के महत्त्व को हर समय हर एक ने स्वीकार किया है। जो कार्य असम्भव से लगते हैं, वे भी विनय से सम्भव हो जाते हैं। विनय के महत्त्व पर इसी नाम से आपका प्रवचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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