SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनिश्री जिनविजयजीकी कहानी ] [ २६ बम्बई ९-१२-४५ ता० २६ नवम्बर को यहां से उदयपुर (मेवाड़) जाना पड़ा सो कल वापस आया हूं। उदयपुर में महाराणा से मिलना था । प्रापको मालूम होगा कि कुछ राजपूत स्टेटस् एक राजपूत यूनिवर्सिटी बनाना चाहते हैं । उसी के सिलसिले में मुझे और श्री कन्हैयालालजी मुशी को वहां जाना पड़ा, वहां पर उदयपुर डूंगरपुर, पन्ना के महाराजा से मिलना हुआ और यूनिवर्सिटी की स्कीम की चर्चा की गई इसलिए मैं और श्री मुंशीजी दोनों वहां पर गये थे कल ही वापस आये हैं। इसी सबब से मेरा बीकानेर जाना, जो मैंने म्वामी जी को ता० १५ दिसम्बर निश्चित लिखा था बन्द रखना पड़ा। शरीर भी निकम्मा हो रहा है पर उसकी उपेक्षा करके चल रहा हूँ, यदि प्रताप यूनिवर्सिटी की स्कीम कुछ अमल में लाने का अवसर आया तो उसके संगठन और संयोजन का बहुत बड़ा भार मुझे उठाना पड़ेगा । उसके प्रेसीडेंट पन्ना महाराजा वगैरह मुझे ही उस काम का संयोजक बनाना चाहते हैं और ऐसा हुआ तो मुझे कुछ समय मेवाड़ उदयपुर-चित्तौड़ जाकर आसन जमाना पड़ेगा। मेरे दिल में प्रोसवाल महाविद्यालय की कायम करने के कई कारणों से बड़ी आवश्यकता प्रतीत हो रही है वे कारण प्रत्यक्ष ही में विशेष बताये जा सकते हैं। मैं अभी चित्तौड़ दो दिन ठहरा था, वहां ऊपर नीचे खूब घूमा । यूनिवर्सिटी के लिए उपयुक्त स्थान कौन सा हो सकता है । इस दृष्टि से सब देखा-भाला । ____ मेरे दिल में तो यह भी पाया कि खरतरगच्छ की मूल जन्मभूमि चित्तौड़ है। चित्तौड़ का महत्त्व जैन इतिहास में बड़ा भारी है। यदि खरतरगच्छ में कोई जानदार व्यक्ति हो और गच्छ के गौरव की जिसको किंचित भी श्रद्धा हो तो उसके लिए तो चित्तौड़ सबसे पवित्र और पूजनीय तीर्थ स्थान है । मैं चाहता हूं कि श्री जिनदत्तसूरि और जिनवल्लभसूरि के नाम का वहां बड़ा भारी स्मारक बनाया जाय और बड़ा भारी कोई साहित्यिक और शिक्षा विषयक केन्द्र स्थापित किया जाय आप जैसे ५-१० उत्साही भाई जो मेरा जी खोलकर साथ करें तो मैं इसमें अपनी पूरी शक्ति देना पसन्द करू । क्या आप लोगों के दिल में कुछ भावना पैदा हो सकती है ? २२-८-४६ एक तो इच्छा होती है-अब इस प्रपंच को छोड़कर एकान्त निवास करू-दूसरी साथ में कुछ सामाजिक प्रवृत्ति का भी कार्य करने की ऊमि उठती रहती है। देश की और समाज की जो वर्तमान दशा है उसमें कुछ करने जैसा मेरे लिए विशिष्ट कार्य पड़ा है । और मैं मानता हूं कि मुझे यह करना चाहिए, १ हरिभद्रसूरि स्मृति मंदिर मुनिजी ने स्थापित कर जिनदत्तसूरि सेवा संघ को सौंप दिया है उसमें इन प्राचार्यों की मूर्तियां भी स्थापित होंगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy