SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ ] संस्कृत की शतक-परम्परा पाठ का प्रकाशन किया ७ । श्री कमलेशदत्त त्रिपाठी ने सन् १९६१ में मित्र प्रकाशन गौरव ग्रन्थ माला के अन्तर्गत ललित हिन्दी भावानुवाद के साथ शतका सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया । टीकाकार रविचन्द्र ने अमरु की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए उसकी कृति की शान्तरसपरक व्याख्या करने की दुश्चेष्टा की है। इस सन्दर्भ में म०म० दुर्गा प्रसाद का कथन है “स च शुचिरसस्यन्दिष्व-मरुश्लोकेषु परिशील्यमानेषु 'रहसि प्रौढवधूनां रतिसमये वेदपाठ इव सहृदयानां शिरःशूलमेव जनयति"। कश्मीरी कवि भल्लट (आठवीं शती) का (११) शतक शिक्षाप्रद नीतिपरक मुक्तकों का संगह है। कविता विविध विषयों का स्पर्श करती है, किन्तु अन्योक्तियों का वाहुल्य है। भल्लट की कृति लालित्य तथा प्रसाद से परिपूरित है । ऐसी आकर्षक तथा भावपूर्ण अन्योक्तियां साहित्य में कम मिलती हैं । चिन्तामरिण ! किसी चक्रवर्ती सम्राट ने तुम्हें अपने मुकुट में धारण कर गौरवान्वित नहीं किया है, इस कारण तू विषाद मत कर । जगत में कोई शीश इतना पुण्यशाली कहां कि तुम्हारे परस का सौभाग्य पा सके। चिन्तामणे भुवि न केनचिदीश्वरेण मूर्ना धृतोऽहमिति मा स्म सखे विषीदः । नास्त्येव हि त्वदधिरोहणपुण्यवीजसौभाग्ययोग्यमिह कस्यचिदुत्तमाङ्गम् ॥ पांच अन्य कश्मीरी कवियों ने अपनी रुचि तथा मान्यता के अनुसार शतको का निर्माण किया है। स्तोत्र काव्यों की शृङ्खला में ध्वनिकार प्राचार्य आनन्दवर्धन के (१२) देवीशनक का निजी स्थान है। देवी शतक के सौ पद्यों में भगवती दुर्गा की स्तुति हुई है। देवीशतक कवि की किशोर कृति प्रतीत होती है। सम्भवतः इसीलिये इसमें न भक्ति की ऊष्मा है, न भावों की उदात्तता, न कल्पनाओं की कमनीयता । देवीशतक की महत्ता काव्य-गुणों के निमित्त नहीं, कवि के व्यक्तित्व के कारण है। कश्मीर नरेश शकर वर्मा (८८३-६०२ ई.) के सभाकवि वल्लाल का (१३) शतक, भल्लट शतक की भांति अन्योक्ति प्रधान है। (१४) चारुचर्याशतक कश्मीर के प्रख्यात बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कवि क्षेमेन्द्र (११ वीं शती) की रचना है। शतक में जीवनोपयोगी सद्व्यवहार तथा लोकज्ञान का सन्निवेश है। प्रत्येक उपदेश को तत्सम्बन्धी पौराणिक ऐतिहासिक आख्यान का दृष्टान्त देकर पुष्ट किया है। उपकार करते समय प्रत्युपकार की कामना करना अशोभनीय है । कर्ण का दान 'शक्ति' प्राप्ति की याचना से दूषित हो गया था। त्यागे सत्त्वनिधिः कुर्यान्न प्रत्युपकृतिस्पृहाम् । कर्णः कुण्डलदानेऽभूत कलुषः शक्तियाञ्चया ।। ७. देखिये श्री कमलेशदत्त त्रिपाठी द्वारा सम्पादित 'अमरुशतक' की भूमिका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy