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________________ सत्यव्रत 'तृषित' [ ३११ श्री रमाकान्त त्रिपाठी ने स्वसम्पादित सूर्यशतक की भूमिका में चार अन्य सूर्यशतकों का उल्लेख किया है । (५) गोपाल शर्मन् कृत सूर्यशतक कलकत्ता से १८७१ ई० में प्रकाशित हुआ था । अॉफेक्ट के कैटालोगस कैटालोगोरियम में इसका उल्लेख हुआ है। (६) श्रीश्वर विद्यालङ्कार के सूर्यशतक की एक पाण्डुलिपि राजेन्द्रलाल मित्र को प्राप्त हुई थी। सम्भवतः यह अभी तक अप्रकाशित है। (७) तीसरा सूर्यशतक राघवेन्द्र सरस्वती नामक किसी कवि की रचना है। पीटरसन को इसकी एक हस्तलिखित प्रति भी मिली थी । एक हस्तलिखित प्रति महाराज-अलवर की पुस्तकालय में विद्यमान है। (८) एक अन्य सूर्यशतक लिङ्ग कवि की कृति है । विलियम टेलर को इसकी एक पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई, जिसमें मूल पाठ के साथ टीका भी है। मयूर के जामाता बाण का (8) चण्डीशतक एक अन्य प्राचीन प्रसिद्ध स्तोत्र काव्य है । बाग ने अपने श्वसुर द्वारा प्रवर्तित स्रग्धरा-परम्परा को चण्डीशतक में पल्लवित किया। इसके १०२ स्रग्धरा पद्यों में भगवती चण्डी की, विशेषत: उनके चरण की, जिससे उन्होंने महिषासुर का वध किया था, प्रशस्त स्तुति हुई शितक की भांति इसका भी प्रत्येक पद्य प्राशी रूप है । गद्य सम्राट बाग की दुरुह तथा कृत्रिम शैली चण्डीशतक में पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हुई है । बाण की यह काव्यकृति उनके गद्य के समान दुर्बोध तथा दुर्भेद्य है। चण्डीशतक काव्य माला के चतुर्थ गुच्छक में प्रकाशित हो चुका है। क्वेकेनबास ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है। ne (१०) अमरुशतक (आठवीं शती का पूर्वार्ध) अमरु-रचित शृङ्गारिक मुक्तकों का संग्रह है जिनकी संख्या तथा क्रम में, विभिन्न संस्करणों में, पर्याप्त भेद है। सामान्यतः प्राचीनतम टीकाकार अर्जुन वर्मदेव (तेहरवीं शताब्दी) का पाठ शुद्ध तथा प्रम णिक माना जाता है । गीतिकाव्य के क्षेत्र में कालिदास के उपरान्त कदाचित् अमरु ही एक मात्र ऐसे कवि हैं, जिन्हें काव्य शास्त्रियों से भरपूर प्रशंसा मिली है । प्राचार्य प्रानन्दवर्धन ने अमरु के प्रत्येक मुक्तक को, रस-प्राचुर्य तथा भाव गाम्भीर्य की दृष्टि से, प्रबन्ध काव्य के समकक्ष माना है (मुक्तकेषु प्रबन्धेष्विव रसबन्धाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते । यथा ह्यमरुकस्य कवेमुक्तकाः शृङ्गार रमस्यन्दिनः प्रबन्धायमानाः प्रसिद्धा एवं) सचमुच अमरु ने मुक्तक की गागर में रस का सागर भर दिया है। अमरुशतक में मदिरमानस प्रेमी युगलों के कोप-मनुहार, मान-मना वन, ईर्ष्या-प्रणय तथा शृङ्गार की अन्य मादक भंगिमानों का भाव भीना तथा चारु चित्रण हुया है। भत हरि के शतकों की भाँति अमरुशतक भी रसिक समाज में बहुत विख्यात हुआ । इस शतक पर विभिन्न विद्वानों ने चालीस टीकाए' लिखीं तथा देश-विदेश में इसके अनेक सम्पादन और अनुवाद हुए । सन् १८०८ में 'एडिटियो प्रिन्सेप्स' में देवनागरी लिपि में प्रथम बार कलकत्ता से प्रमहशतक का 'कामदा' के साथ प्रकाशन हमा। १८७१ ई० में भाषा सञ्जीवनी प्रेस, मद्रास से इसका एक दाक्षिणात्य संस्करण प्रकाशित हया । इसमें वेमभूपाल की टीका थी । सन् १८८६ में निर्णय सागर प्रेस ने 'रसिक सञ्जीवनी' के साथ इस ग्रन्थ का पश्चिमी संस्करण प्रकाशित किया । जीवानन्द विद्यासागर द्वारा सम्पादित पौरस्त्य पाठ काव्यसंग्रह' के द्वितीय भाग में मुद्रिन हग्रा । रिचर्ड साइमन ने तब तक उपलब्ध समस्त सामग्री तथा पाण्डुलिपियों का मन्थन कर कील (जर्मनी) से अमरुशतक का १८६३ ई० में अतीव समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया। सुशील कुमार डे ने 'अवर हेरिटेज' के प्रथम-द्वितीय भाग में रुद्रदेव कुमार की टीका तथा अमरुशतक के मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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