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________________ सत्यव्रत 'तृषित' [ ३०६ पहुँचेगी । प्राप्त १०६ शतकों का विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । इनमें कुछ तो प्रादेशिक भाषात्रों के शतकों के संस्कृत अनुवाद हैं कुछ मात्र संकलन है, परन्तु अधिकांश कृतियाँ मौलिक हैं। विषय - वैविध्य, संख्या तथा साहित्यिक गरिमा की दृष्टि से संस्कृत-साहित्य का यह अंग नितान्त रोचक तथा महत्त्वपूर्ण है । प्राचीनतम उपलब्ध शतक संज्ञक रचनाए भर्तृहरि ( ५७० - ६५१ ) के ३१-३) नीति, शृङ्गार तथा वैराग्य शतक हैं। नीतिशतक में उन उदात्त सद्गुणों का चित्रण हुआ है जिनका अनुशीलन मानव-जीवन को उपयोगी तथा सार्थक बनाता है । भर्तृहरि की नीति परक सूक्तियाँ लोकव्यवहार में पग-पग पर मानव का मार्गदर्शन करती है । यहां शतक प्रणेता, वस्तुतः लोककवि के रूप में प्रकट हुआ है जो अपनी तत्त्वभेदी दृष्टि से मानव प्रकृति का पर्यवेक्षण तथा विश्लेषण कर उसकी भावनाओंों को वाणी प्रदान करता है । शृङ्गार शतक काम तथा कामिनी के दुनिवार आकर्षण २ तथा आसक्ति की सारहीनता का रंगीला चित्र प्रस्तुत करता है | प्रकर्षण तथा विकर्षण के दो ध्रुवों के बीच भटकने वाले असहाय मानव की दयनीय विवशता का यहाँ रोचक वर्णन हुआ है । वैराग्य शतक में संसार की भंगुरता, धनिकों की हृदयहीनता तथा प्रव्रज्या की शान्ति तथा आनन्द का अकन है । • प्रो० कोसम्बी के मतानुसार नीति, शृङ्गार तथा वैराग्य सम्बन्धी भर्तृहरि विरचित प्रमाणिक पद्य मूलतः शतकाकार विद्यमान नहीं थे । उन्हें इस रूप में प्रस्तुत करना कवि को अभीष्ट भी नहीं था ४ | डॉ० विष्टरनिटज शृङ्गार शतक को तो भर्तृहरि की प्रामाणिक तथा सुसम्बद्ध रचना मानते हैं उनके विचार से इसमें वैयक्तिकता के स्वर ग्रन्य दो शतकों की अपेक्षा अधिक मुखर हैं। नीति तथा वैराग्य शतक, लिपिकों के प्रमाद के कारण, सुभाषित संग्रह बन गये हैं, जिनमें भर्तृहरि के प्रामाणिक मूल पद्यों की संख्या बहुत कम है ५ । निस्सन्देह विभिन्न संस्करणों में तथा एक संस्करण की विभिन्न प्रतियों में इन शतकों की पद्य संख्या अनुक्रम तथा पाठ में पर्याप्त वैभिन्य । पर इनके रूप के अस्तित्व को चुनौती देने की कल्पमा साहसपूर्ण प्रतीत होती है, क्योंकि परवर्ती समग्र शतक - साहित्य की प्रेरणा का मूलस्रोत ये शतक ही हैं । इनका प्राकार तथा परिमाण कुछ भी रहा हो, शतकत्रयी को देश-विदेश में अनुपम लोकप्रियता प्राप्त हुई है । अगणित पाण्डुलिपियाँ, संस्करण, टीकाएं तथा अनुवाद इस ख्याति के ज्वलन्त प्रमाण हैं । इण्डिया ग्राफिस तथा ब्रिटिश संग्रहालय के सूची पत्रों से भर्तृहरि के शतको के शताधिक मुद्रित संस्करणों, रूपान्तरों तथा अनुवादों के अस्तित्व की सूचना मिलती है । यूरोप का भर्तृहरि से सर्वप्रथम परिचय नीति तथा वैराग्य शतकों के डच अनुवाद के माध्यम से सन् १६५१ में हुआ, जो अब्राहम रोजर ने पालघाट के ब्राह्मण पद्मनाभ की सहायता से किया था । इस २. तावदेव कृतिनामपि स्फुरत्येष निर्मल विवेक दीपकः । यावदेव न कुरङ्गचक्षुषां ताड्यते चटुल लोचनाञ्चलैः !! शृङ्गार ३. सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिनृप इव । वैराग्य ४. शतकत्रयादि- सुभाषित-संग्रह की भूमिका, पृष्ठ ६२ ५. History of Indian Literature, Vol. III, Part I, P. 156 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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