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________________ डॉ० प्रभाकर शास्त्री ३०७ ] इस पद्य में उनकी माता 'बालाबाई' का भी उल्लेख है- 'बालासुतो' पद से । संवत् के लिये विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है- व्योम=0, अंक=६, बाण=५, इन्दु-१- अकानां बामतो गतिः के अनुसार १५६० संवत् प्रा जाता है । खेद है, इस पद्य के पश्चात् ग्रन्थ के पत्र नहीं मिलते । अतः अपूर्ण होने से नहीं कहा जा सकता यह कितना और रहा होगा। समालोचन इस ग्रन्थ के लेखक का नाम उपलब्ध पद्यों में कहीं भी नहीं मिलता । ग्रन्थ के नाम के सम्बन्ध में भी केवल पुस्तक के (उपलब्ध पत्रों के ७ वें पत्र के पृष्ठ पर लिखे गए- "गोकुल प्रसाद स्यदं पुस्तकं पृथ्वीराजविजय खण्डित १२ पत्रारिण" के आधार पर स्वीकार किया गया है । मेरी दृष्टि में इस काव्य का यह नाम नहीं रहा होगा। क्योंकि इस काव्य का नायक यदि पृथ्वीराज को मानते हैं तो लेखक उसका बहुत विस्तृत वर्णन करता तथा उनके जीवन की घटनाओं पर विशद् प्रकाश डालता । लेखक ने पृथ्वीराज के विषय में कोई भी उल्लेखनीय घटना नहीं लिखी है तथा रानियों एवं पुत्रों की संख्या मात्र दो है। किसी भी काव्य या महाकाव्य के नायक के लिए २-३ पद्य लिखना ही पर्याप्त नहीं माना गया है । फिर एक बात और भी है । पृथ्वीराज ही यदि इसके नायक हैं तो उनकी 'विजय' से सम्बन्धित किसी घटना का उल्लेख भी होना चाहिये- तब नाम की सार्थकता बनेगी। इसके अतिरिक्त लेखक इसकी समाप्ति पृथ्वीराज के शासनकाल के साथ ही नहीं करता, वह उसके पुत्र पूर्णमल व भीमसिंह का भी वर्णन करता है। चूकि इतने ही पद्य उपलब्ध हैं, अतः नहीं कहा जा सकता इसके पश्चात् कितने शासकों का वर्णन और किया होगा। श्री पृथ्वीराज के वर्णन से तो अधिक महाराज सोढदेव व दूलहराय का वर्णन है। 'जब इस काव्य का नाम "पृथ्वीराज विजय" उचित नहीं है तो क्या नाम हो सकता है- इस पर विचार करना भी कठिन है। यदि ग्रन्थ आदि या अंत में कहीं भी पूर्ण होता तो यह विचार फिर भी संभव था। इतना जरूर कहा जा सकता है कि इसमें जयपूर (आमेर) के कछवाहों का इतिहास वणित है और यह इतिहास उपलब्ध वंशावलियों एवं ऐतिहासिक घटनाओं के विरुद्ध नहीं है। कहीं कहीं मत-मतान्तर अवश्य हैं परन्तु वे इतने विचारणीय नहीं है। बीच-बीच में शासनकाल का भी संकेत इसके ऐतिहासिक काव्यत्व में सहयोगी है । चूकि, इसमें इतिहास एवं ऐतिहासिक घटनाओं का काव्यमय वर्णन है, अत: ऐतिहासिक काव्य को स्वीकार करने में सन्देह नहीं है । महाकाव्य स्वीकार किया जाय या नहीं, यह प्रश्न विचारणीय अवश्य है, परन्तु ग्रन्थ के पूर्ण उपलब्ध न होने एवं उपलब्ध पद्यों के आधार पर इसे लक्षणग्रन्थों की कसौटी पर नहीं उतारा जा सकता। सारांश में- यही कहा जा सकता है कि पद्य सरल एवं सुन्दर हैं। यह एक ऐतिहासिक काव्य हैयह तथ्य निर्विवाद है । ग्रन्थ में अशुद्धियां लेखक की न होकर लिपिकार की हैं, जिसने मूलग्रन्थं से इसकी नकल की थी । ग्रन्थ त्रुटित व कीट अशित लगता है, क्योंकि अनेक स्थानों पर पद उपलब्ध नहीं है। इस काव्य की पूर्ण प्रतिलिपि राजकीय पोथीखाने में हो सकती है। यदि वह उपलब्ध हो तो इस पर विवेचना की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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