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________________ २८६ ] भारतीय संगीतशास्त्र में मार्ग और देशो का विभाजन (१) मार्ग-संगीत के अन्तर्गत ग्राम-राग, मार्ग-ताल और शुद्ध गीतक-इन विषयों का जो भी निरूपण शास्त्र-ग्रन्थों में मिलता है, उससे यह स्पष्ट है कि ३० अथवा ३२ ग्रामराग ५ मार्गताल और १४ . शुद्धगीतक-इन की संख्या अथवा लक्षण में कहीं कोई परिवर्तन नहीं पाया जाता। देशी रागों, तालों, और प्रबन्धों के भेदों की संख्या इन से कहीं अधिक है और उसमें बहुत कुछ न्यूनाधिकता देश-काल-क्रम से पायी जाती है। मार्ग की इस अपरिवर्तनीयता की पृष्ठभूमि में दर्शनशास्त्र तथा आध्यात्मिक साधना के कौन से गूढ तत्त्व हैं, यह अनुसन्धान का विषय है। (२) मध्ययुग में मार्ग-देशी के विभाजन की जो उपेक्षा अथवा लोप हुआ, तदनुसार देशी का ही वर्णन ग्रन्थों में मिलता रहा ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं है। मार्ग का यह लोप अलौकिक प्रयोजन की दृष्टि से समझा जाय अथवा नियमों की कठोरता की दृष्टि से देखा जाय ? सभवतः दोनों दृष्टियों को यथायोग्य स्थान देना उचित होगा, अर्थात् यह भी सत्य है कि उन ग्रन्थों में वरिणत संगीत लौकिक प्रयोजन मात्र का साधक है, और साथ ही यह भी सत्य है कि वह संगीत प्रदेश-विशेष और काल-विशेष द्वारा सीमित है, यानी लक्ष्य-प्रधान है । मार्ग को जो लक्षणप्रधान कहा गया है उसका अभिप्राय यही है कि वह सार्वभौम और सार्वकालिक है। (३) आधुनिक शास्त्रीय संगीत को मार्ग समझा जाय या देशी ? प्रयोजन की दृष्टि से तो इसे केवल देशी ही कहा जा सकता है, हां, नियमों के बन्धन की दृष्टि से इसे मार्ग भी समझ सकते हैं । किन्तु वहाँ भी जिस अंश तक घरानों अथवा प्रादेशिक परम्पराओं के भेद से नियमों में भेद पाया जाता है. वहां तक उसके मार्गत्व की हानि ही है। निःश्रेयस साधन की योग्यता का मुख्य आधार तो प्रयोक्ता की अपनी मनोभूमिका है। अपेक्षित मनोभूमिका यदि किसी साधक के पास हो तो आज भी संगीत का मार्गत्व सिद्ध हो ही सकता है। इतना अवश्य है कि विशेष अनुसंधान के बिना, परम्परागत संगीत शास्त्र में से, निःश्रेयस् साधक संगीत की अध्यात्मशास्त्रीय व्याख्या प्राप्त करना असंभव सा है। जिस प्रकार अन्य आध्यात्मिक साधनामों के शास्त्र हैं, जिनमें साधक की क्रमशः उन्नति का, पत्र की बाधाओं का तथा बाधाओं से निराकरण के उपाय का निरूपाय मिलता है, वैसा कुछ अाज संगीतशास्त्र में दिखाई नहीं देता। इसलिये ऐसा लगता है कि संगीत-साधना को चित्त की एकाग्रता का सुलभ और सुगम उपाय जान कर ही इसे निःश्रेयस् जनक कह दिया गया है, और यह मान लिया गया है कि उसके साथ-साथ नाद योग अथवा भक्ति की साधना अनिवार्य रूप से रहेगी ही। संगीत के साधक सन्तजनों अथवा भक्ति-रसिकों के चरित से भी यही निष्कर्ष निकलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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