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________________ प्रेमलता शर्मा [ २८५ । स्रवणशक्ति मर्यादित है, आन्दोलनों की कुछ न्यूनतम और अधिकतम सीमा के भीतर ही मनुष्य का श्रोत्र काम करता है। इस मर्यादा के बाहर असीम क्षेत्र है किन्तु वह मनुष्य के लिये अगम माना जाता है। २-वाहक माध्यम के सम्बन्ध में ध्वनिविज्ञान द्वारा प्रतिपाद्य ध्वनि पृथ्वी (Solid) जल ( Liquid) अथवा वायु (gas) के माध्यम के बिना चल नहीं सकती। वाहनहीन आन्दोलन श्रव्य नहीं होता और वाहन हीनता शून्य ( Vacuum ) में ही हो सकती है । भारतीय दर्शन के अनुसार सपूर्ण शून्यता असंभव है क्योंकि तथाकथित शून्यता में भी शक्ति का बहुत प्रबल और सूक्ष्म रूप निहित रहता है। हमारे दर्शन में श्राकाश अथवा व्योम 'शून्य' में ही रहता है वह सूक्ष्मतम भूत है जो सारे विश्व में व्याप्त है तथा जो Solid, Liquid तथा gas से भी सूक्ष्म है । ३-वनि का लय कहाँ होता है इस का कोई उत्तर ध्वनि विज्ञान के पास नहीं है । विज्ञान अधिक से अधिक यही कह सकता है कि ध्वनि की शक्ति ( energy) किसी अन्य शक्ति में परिवर्तित हो गई, किन्तु वह परिवर्तन कैसे कब और किस रूप में होता है इन प्रश्नों का कोई उत्तर विज्ञान के पास नहीं है । भारतीय दर्शन के अनुसार ध्वनि का उदय और लय प्रकाश या व्योम में ही है, और उसी में सब ध्वनियाँ अमर रूप में संग्रहीत रहती हैं। इसी सूक्ष्म व्योम के अनुसन्धान से परब्रह्म की प्राप्ति की सुगमता ही मार्ग संगीत का प्राधार है। इस अनुसन्धान के लिये नाद का माध्यम सर्वाधिक सुलभ माना गया है। इसी लिये संगीत को नादयोग कहा गया है किन्तु इस अनुसन्धान के अभाव में संगीत साधना एक लौकिक कर्म मात्र है । इस नादग्रनुसन्धान के प्रसंग में निम्नलिखित उद्धरण विशेष उपयोगी होगा । हमारे समस्त नादोच्चारण का कोई एक आधार अवश्य है, पो रूप मूल स्पन्द | यह मूल स्पन्द अपने को नाद अथवा ध्वनि के रूप में ध्वनि साधारण श्रव्य ध्वनि नहीं है। यह ध्वनि रूपा सुरधुनी ध्रुवा व पदम् - यह है इस ध्वनि का पराभाव ब्रह्मलोक में जो कुण्ठाहीन दिव्य हर के जटा जाल में अवगुंठित होने पर मध्यमा और अन्त में भगीरथ के होने पर वैखरी होती है। हमारा सब वाग्वहार रस ध्रुव धारा के वक्ष उसी में लीन हो जाता है, इसलिये साधक को मूल स्पन्द रुपा उस करना होता है ।" ( स्वामी प्रत्यगात्मानन्द सरस्वती कृत जपसूत्रम्, भाग २, परिशिष्ट, श्लोक ४- १०) 14 और वह है ब्रह्माकाश में ज्ञानमय व्यक्त कर रहा है । अवश्य ही यह सनातनी है 'तद् विष्णोः परमं । अनुभूति है, वह है पश्यन्ती भावा शंख-निनाद से गोमुख से निःसृता स्थल पर वीचिवत् उठ कर पुनः ध्वनि सुरधुनी प्रवा का सम्मान देशी का सम्बन्ध वैखरी से ही है किन्तु मार्ग में मध्यमा पश्यन्ती और परा का क्रमश: अनुसन्धान श्रावश्यक हैं । इस प्रसंग में एक भ्रान्त धारणा का निराकरण आवश्यक है । कुछ लोगों का यह विचार है। संज्ञा है जो इन्द्रियजन्य होता है । यदि ऐसा न अनाहत नाद की भांति कि मार्ग संगीत का माध्यम अनाहत नाद है। व्यापार के स्तर पर आहत नाद को प्रालम्बन होता तो तो संगीत शास्त्र के अन्तर्गत उसका केवल योग शास्त्र का ही विषय रह जाता । किन्तु वास्तव में मार्ग उसी संगीत की बना कर निःश्रेयस् प्राप्ति में समर्थ वर्णन ही न हो पाता। फिर तो वह उपसंहार में कुछ विषयों का संकेत मात्र प्रस्तुत किया जाता है क्योंकि स्थानाभाव से उनका प्रतिपादन नहीं किया जा सका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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