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________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व (ग) भविष्यार्थ में अपभ्रंश 'स्य' तथा 'स' (३८८) दोनों का प्रयोग काव्य में होता है। इस प्रकार 'होस्यई' और होसउ' दोनों रूप मिलते हैं । इसी के अन्य रूप 'होइस्यई' (<भविष्यति), 'होइसई' 'होसिइ', 'होइहि' ( होइइ ), 'होहिइ' ( ३८८ ), 'होवइ', 'होइ', 'हुवई', ह वै', 'ह वइ' आदि रूप भी प्रचलित हैं। (४) रूप परिवर्तन : (क) अपभ्रंश में जहाँ अनादि 'म्' सानुनासिक 'व्” हो जाता है (३६७), वहाँ राजस्थानी में मध्यग -म्-एवं -व- दोनों का प्रयोग हुआ है, परन्तु अन्त्य -म् का परिवर्तित अनुनासिक -व् प्रानुनिक रूप में -उहो गया है। (ख) अन्त्य व्यंजन से संयुक्त 'र' जहाँ अपभ्रंश में विकल्प से लोप होता है (३९८) वहाँ राजस्थानी में भी यही प्रवृत्ति देखी जाती है। (ग) अपभ्रश 'जेहु', 'तेहु'. 'एह' (४०२) राजस्थानी में काव्य में प्रयुक्त हुए हैं, परन्तु इनके विकसित रूप 'जेहो', 'तेहो', 'केहो', 'एहो' भी मिलते हैं । पुरानी पश्चिमी राजस्थानी से ये रूप गुजराती में चले गये। राजस्थानी में इनके स्थान पर अपभ्रंश 'जइस', 'इस', 'कइस', अइस ( ४०३) से विकसित रूप 'जहसउ' (>जिसो, जसो, जस्यो), 'तइसउ' ( >तिसो, तसो, तस्यो), 'कइसइ' ( किसो, कसो, कस्यो ) और 'अइसउ' (इसो, असो, अस्यो) रूप प्रयुक्त होते हैं । (घ) अपभ्रंश के 'जेवडु-तेवडु' (४०७) के 'जेवडो-तेवडो' तथा एवडु-कवेडु (४०८) के 'एवडो' केवडो' रूप पुरानी राजस्थानी तथा काव्य में बराबर प्रयुक्त होते रहे हैं। मारवाड़ी में इनके रूप क्रमशः 'जेड़ो', 'तेड़ो', 'एड़ो', 'केड़ो' विकसित हुए हैं। इसी प्रकार अपभ्रण 'जेत्तुलो'-तेत्तुलो' (४०७) के 'जितरोतितरो, वितरो (जतरो-ततरो-वतरो) तथा एत्त लो-केत्त लो (४०८) के 'इतरो (अतरो)-कितरो (कतरो) राजस्थानी रूप विकसित हुए । आधुनिक मारवाड़ी में इनके रूप क्रमशः 'जित्तो' तित्तो' (वित्तो), 'इत्तो' 'कित्तो' हो गये । (५) स्वार्थिक प्रत्यय : संज्ञा में लगने वाले अपभ्रश स्वार्थिक प्रत्यय 'अ-डड-डुल्ल-डो-डा' (४२६, ४३०, ४३१,४३२) के राजस्थानी में डो, लो, डी, ली, ड्यो, ल्यो, डिओ (डियो), लियो (लियो) रूप मिलते हैं । (६) अपभ्रश से राजस्थानी का पृथक्करण : इस बात का निर्णय करना कठिन है कि अपभ्रश से राजस्थानी का प्रथक्करण कब हुप्रा । एक भाषा के भीतर ही उससे विकसित होने वाली भाषा के बीज प्रस्फुरित हो जाते हैं और धीरे धीरे वह भाषा अपनी नवीन भाषा को पोषित करती हुई लुप्त हो जाती है। राजस्थानी की भी यही स्थिति देख पड़ती है। अपभ्रश ज्यों ज्यों लोक व्यवहार से हटती गई त्यों त्यों राजस्थानी के नव विकसित अंकुर भाषा में स्थान प्राप्त करते रहे । इस प्रकार अपभ्रश के अन्तिम युग को परिवर्तित भाषा में प्राप्त साहित्य में राजस्थानी भाषा के प्रारम्भिक रूप देख पड़ते हैं। ये रूप सम्भवतः विक्रम की आठवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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