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________________ १६८ श्री उदयसिंह भटनागर (१) विभक्तियां: (क) राजस्थानी में प्रथमा और सम्बोधन में एक वचन पुलिंग आकारान्त तथा स्त्रीलिंग प्राकारान्त संज्ञाएं अपभ्रंश के समान (३३०) ही रहती हैं । परन्तु द्वितीया एक वचन पुल्लिग में अपभ्रंश के अकारान्त (३३१) का आकारान्त हो गया है। अपभ्रंश तृतीया के -ए (३३३), अनुस्वार तथा –ण (३४२ तथा ३४३), ०-हिं (३३३, ३४७) राजस्थानी काव्य में सुरक्षित रहे हैं । अप० पंचमी के -हे, -हु (३३६,३४१, ३५२) तथा हुं ( -हुँ (३३७, ३४१) काव्य में तो सुरक्षित हैं, पर बोलियों में -हु के स्थान पर -हुं का ही प्रयोग होने लगा है । षष्ठी के -हं (३३६, ३४०), -हे (३५०) और -हु का प्रयोग केवल काव्य में ही सीमित है । सप्तमी -इ, -ए (३३४), -हि (३४१, ३५२), -हुँ (३४०), -हि (३४७) काव्य में प्रयुक्त होते रहे हैं। पर -इ का प्रयोग काव्य में छन्द-बन्धन के कारण -ए के स्थान पर ही हुमा । बोलियों में केवल -ए ही पाया जाता है। -ए का बहुवचन बोलियों में -आँ हो गया है । सम्बोधन पुल्लिग -हो (३४६) का प्रयोग बोलियों में भी होता है, परन्तु स्त्रीलिंग-हो (३४६) का प्रयोग केवल आदर सूचनार्थ ही होता है । स्त्रीलिंग -ए ( ३३०) का प्रयोग सर्वत्र होता आया है। (२) सर्वनाम : (क) निश्चयवाचक : अपभ्रंश एहो (३६२) के स्थान पर राजस्थानी में यो (ओ); एइ (३६३) के स्थान पर ई; एह (३६२) के स्थान पर या (पा); अोइ (३६४) के स्थान पर प्रो, वो; प्राय (३६५) के स्थान पर प्रा; आयई (३६५) के स्थान पर ई; जासु-कासु (३५८) तथा जहे-कहे (३५८) के स्थान पर जीं-की हो गये हैं। . । (ख) प्रश्नवाचक : अपभ्रंश 'काई' और 'कवण' (३६७) पुरानी राजस्थानी में तो ग्रहण किये गये हैं, परन्तु उसके पश्चात् 'काई" तो मूल रूप में ही बोलियों तक आया है और 'कवण' का विकसित रूप 'कुण' (कूण, कोण) प्रयुक्त होने लगा। (ग) पुरुष वाचक : अपभ्रंश 'मई' (३७७) राजस्थानी काव्य में 'मि' हो गया और 'मइ” तथा 'मि' दोनों का प्रयोग होने लगा । इसी प्रकार अपभ्रंश अम्हे-अम्हइ (३७६) का 'म्हे'; 'हउ' (३७५) का हुँ' तथा मूल रूप 'हउ" भी काव्य में व्यवहृत होने लगे । इनमें 'म्हे' तो बोलियों तक चला आया पर 'हु" की परम्परा काव्य तक ही सीमित रही । हु के स्थान पर 'म्हु' का बोलियों में विकास हुआ । इसी प्रकार मध्यम पुरुष 'तुहु' (३६८) का 'थू' 'तुम्हे'-तुम्हई' (३६६) का 'थां-थे'; 'तई' (३७०) का 'थइ'; 'तउ' (३७२) का 'थउ' रूप बोलियों में विकसित हुए । (३) क्रिया : (क) राजस्थानी में अपभ्रश वर्तमान के प्रत्यय -उ (३८५), -हु (३८६), -हि (३८३). -हु (३८४), -हिं (३८२) काव्य में तो प्रयुक्त होते रहे हैं, परन्तु बोलियों में -उका -उ,-हु का -प्रां, -हि तथा -हिं का -ए, और -हु का -प्रो हो गया है । (ख) आज्ञार्थ में अपभ्रंश -इ, -उ, -ए (३८७) काव्य में सुरक्षित हैं, परन्तु बोलियों में 'सबके स्थान पर - का प्रयोग होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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