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________________ जवाहिरलाल जैन जिसमें महात्माजी की सीट रिजर्व थी। महात्माजी के साथ उस समय कौन थे इसका मुझे ठीक स्मरण नहीं है। मैं तो गाड़ी में जाकर बैठ गया और प्रेमीजी तथा एक अन्य मेरे वैसे ही प्रात्मीय स्वजन भी वहां पहुंचा गए थे। महात्माजी ठीक गाड़ी चलने के पहले ५ मिनट वहां पहुंचे-सेठजी जमनालालजी वगैरह उनके साथ थे। जैसे ही महात्माजी अपने बैठने के डिब्बे के पास पहैं। । तुरंत उन्होंने जमनालालजी से पूछा कि जिन विजय जी आगए या नहीं और मालूम होने पर कि मैं पहुंच ग तुरंत वे मेरी सीट के सामने प्राए और पूछा कि क्यों ठीक पा गए हो ना, बैठने करने की पूरी सुविधा है न ? मैंने नम्रता के साथ कहा कि आपकी कृपा से सब कुछ ठीक है और फिर बोले कल सुबह तो अपने को आनंद स्टेशन पर उतरना है क्योंकि वहां से शरद पूर्णिमा के निमित्त डाकोर में बड़ा मेला लगता है वहां पर सभा रक्खी गई है अतः वहां जाना आवश्यक होगा। वहां से फिर अहमदाबाद जावेंगे। इतने ही में गाड़ी के इंजन ने सीटी दे दी और महात्माजी अपने कम्पार्टमेन्ट में जाकर बैठ गए, मैं शायद जिन्दगी में पहली बार रेल के II Class में बैठा । सारी रात मुझे अपने मनोमन्थन में डूबे रहने का आनंद प्राता रहा, इसलिए मैने नींद को अपने पास नहीं आने दिया ।। सबेरे गाड़ी पानंद स्टेशन पर पहुँची। वहां पर कई लोग अहमदाबाद से भी आये हऐ थे उनमें स्व. C. F. Andrews भी शामिल थे। हम लोग स्टेशन के पास कोई छात्रालय या विद्यालय या वहां पर ठहराये गए । महात्माजी ने श्री Andrews को मेरा परिचय कराया क्योंकि उस समय मेरा वेष जैन साधु का था जो उपस्थित अन्य लोगों में विलक्षण सा लग रहा था । महात्माजी ने श्री Andrews से कहा कि यह एक जैन साधु हैं और पूना में शिक्षा और साहित्य विषयक बहुत कुछ काम कर रहे हैं। अहमदाबाद में जो हम राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना करने जा रहे हैं उसमें इनकी सेवा की आवश्यकता है इत्यादि । उसके दो-तीन घंटे बाद सब लोग डाकोर गए जहां पर सभा हुई और महात्माजी ने अपने असहकार विषयक कार्यक्रम की योजना लोगों के सामने रक्खी । सरदार बल्लभ भाई पटेल भी वहां उपस्थित थे। दूसरे दिन सवेरे की गाड़ी से अहमदाबाद पहुंचे। महात्माजी ने मुझे अपने साथ ही मोटर में बिठाया और साबरमती आश्रम में ले गए वहां पर स्वं. सेठ पून्जाभाई हीराचंद उपस्थित थे जो गुजरात प्रांतीय कांग्रेस समिति के कोषाध्यक्ष थे। वे सुप्रसिद्ध तत्वज्ञ श्रीमद् राजचंद्र के अनुयायियों में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने श्रीमद राजचद्र के नाम से कोई ज्ञान प्रसारक संस्था की स्थापना के लिए महात्माजी को ५०,००० का दान दे रखा था। महात्माजी ने उनको कहा कि जिन विजयजी जैन साहित्य और तत्वज्ञान के विद्वान हैं, पूना में साहित्य और शिक्षा विषयक अच्छी प्रवृत्ति करते रहते हैं, वहां के विद्वानों में इनका अच्छा आदर है, ये आप यहां स्थापित होने वाले राष्ट्रीय विद्यापीठ में अपनी सेवा देना चाहते हैं और इसलिए मैंने इनको यहां बुलाया है। श्री किशोरलाल भाई, नरहरिभाई आदि से इनको मिलाना है जिनके साथ बैठकर विद्यापीठ की योजना का विचार किया जायगा । पूजाभाई को खासकर के कहा कि इन्होंने मुझे श्रीमद् राजचंद्र के कोई स्मारक निमित्त जो ५०,०००रु. दे रक्खें हैं उनका उपयोग कैसे किया जाय उस विषय में भी इनसे तुम विचार विनिमय करो। महात्माजी ने मेरा अासन अपने ही बैठने के कमरे में लगवाया और तुरंत कस्तूरबा से कहा कि ये जिनविजयजी गरम पानी पीते हैं और 'कंदमूल' आदि नहीं खाते हैं क्योंकि, मैं तब तक जैन साधु की जीवन चर्या का ही यथावत् पालन कर रहा था, अतः इस बात को ध्यान में रखकर महात्माजी ने कस्तूरबा को उक्त प्रकार की सूचना दी। मैं वहां महात्माजी के साथ ४-५ दिन ठहरा और जब जब भी समय मिलता था उनसे अनेक प्रकार की बांतें होती रहती थी। गुजरात विद्यापीठ की योजना के विषय में मेरी श्री किशोरलाल भाई तथा नरहरिभाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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