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________________ प्राचार्य श्री जिनविजय मुनि को ध्यान में रखते हुए मैंने तुरंत ही बम्बई जाने का निश्चय कर लिया। यह दिन भी आश्विन शुक्ला योदशी का था। जिस बोडिंग हाउस में मैं रहता था उसमें कई कालेज के विद्यार्थी भी रहते थे जो फर्गसन कॉलेज और एग्रीकल्चर कॉलेज आदि में पढ़ रहे थे। वे विद्यार्थी मेरे सब भक्त थे। मैंने उनमें से एक विश्वस्त विद्यार्थी को अपने पास बुलाया और कहा कि मुझे आज किसी विशेष कार्य निमित्त रेलगाड़ी में बैठकर जाना है सो तुम मुझे स्टेशन पर लेजाकर टिकट लेकर गाड़ी में बिठा दो और यह बात किसी से कहना मत। बोडिंग हाउस के जिस कमरे में मैं रहता था उसमें मेरी पुस्तकें वगैरह का बहुत कुछ सामान था । उसके ताला लगाकर उसकी चाबी मैंने उस विद्यार्थी को दे दी और मैं केवल अपने पहने हुए साधुवेश वाले कपड़ों के साथ स्टेशन पर चला गया। विद्यार्थी ने मुझे टिकट लाकर गाड़ी में बिठा दिया और उस आश्विन शुक्ला त्रयोदसी के दिन तीन बजे की गाड़ी में बैठकर बंबई के लिए रवाना हो गया । पिछले वर्षों तक पाद भ्रमण करते रहने के बार 'केवल एक दफे प्राणघातक बीमारी के प्रसंग को छोड़कर यह मेरी प्रथम रेल यात्रा थी । इस यात्रा के साथ ही मेरी जीवन यात्रा ने भी और नया मोड़ लिया जो मेरे जीवन के सिंहावलोकन की दृष्टि से अधिक महत्व की बनी। गाड़ी में बैठने के साथ ही मेरे मन में कई प्रकार की तरंगे उछलने लगीं। उस समय १९५६ वाला वह आश्विन शुक्ला त्रयादेशी का स्मरण हुआ जिस दिन मैंने साधु जीवन की चर्या के पथपर चलना प्रारम्भ किया था और आज का यह आश्विन शुक्ला त्रयादशी का दिन अब किसी और ही प्रकार के जीवन पथ पर ले जाने की सूचना दे रहा है। बंबई आने तक रास्ते में मुझे अनेक प्रकार के विचारों का ऊहापोह होता रहा । महात्माजी के पास जाकर क्या बातचीत होगी और अहमदाबाद में स्थापित होने वाले गष्ट्रीय विद्यापीठ में मेरा क्या उपयोग हो सकेगा इत्यादि बातें मैं सोचता रहा । शाम को ७ बजे गाड़ी जब बोरी बंदर स्टेशन पर पहुँची तो मैं गाड़ी मे से उतरकर घोड़ा गाड़ी कर गिरगांव में चंदाबाड़ी नामक स्थान में जा उतरा । उस बाड़ी में मेरे अत्यंत घनिष्ट मित्र श्री नाथूरामजी प्रेमी रहते थे। प्रेमीजी का सबंध मेरे साथ बहुत वर्षों से था ।वे बारंबार पूना में मेरे साथ आकर रहा करते थे और साहित्य विषयक अनेक कामों में योग देते रहते थे। उनको मेरी भावना और विचार की अच्छी कल्पना थी और आगामी स्थापित होने वाले गुजरात के राष्ट्रीय विद्यापीठ आदि के विषय में भी वे सब बातों से सुपरिचित थे। मुझे उसका संदेश पहुँचाने की भी सब खबर देने वाले स्व. सेठ श्री जमनालालजी बजाज उस समय बंबई ही में थे और उन्हीं के द्वारा मुझे महात्माजी से मिलने का सदेश मिला था और उन्होंने प्रेमीजी से भी इस बात का जिक्र कर रक्खा था अतः मेरा वहां पहुँचना उनके लिए कोई आश्चर्यजनक न था। दूसरे दिन सबेरे प्रेमीजी के साथ मैं महात्माजी जिस मरिण भवन में ठहरे हए थे उनसे मिला । महात्माजी ने प्रसन्न भाव से मुझे पूछा कि कब आ गए? मैंने सक्षेप में सारी बात कही, तो उन्होंने कहा यहां मैंने आपको संदेश भिजव या था और अहमदाबाद में आपके सब साथी गुजरात विद्यापीठ में प्रापको सहयोग लेना चाहते हैं इसलिए उनके साथ मिलकर विद्यापीठ की सारी योजना बनानी है. अतः मैंने आपको बुलाया है। प्राज रात को ही यहां से अहमदाबाद चलना है मो आप भी मेरे साथ चलो । सेठ जमनालालजी बजाज भी उस समय वहां बैठे थे। महात्माजी ने उनसे कहा कि इनकी टिकट वगैरह का इन्तजाम कर दिया जाय क्योंकि महात्माजी जानते थे कि मैं अपने पास कोई रुपया-पैसा नही रखता तथा रेलगाड़ी में बैठने का भी यह पहला ही प्रसंग है। सेठजी ने मेरे लिए एक II Class का टिकट ले दिया और मैं चंदाबाड़ी से प्रेमीजी के साथ कोलाबा स्टेशन पर पहुँच गया जहां से उन दिनों गुजरात मेल अहमदाबाद के लिए चलता था। गाड़ी में मेरी सीट II Class के उस कम्पार्टमेन्ट के बगल में थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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