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________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व १. प्राग् एतिहासिक पृष्ठ भूमि, श्रादिम जातियां-भोल, द्रविड़, श्राग्नेय, मंगोल उनकी भाषा प्रवृत्तियां और संस्कृति । अर्थमय जगत की अभिव्यक्ति के लिये भाषा एक महान साधन है। इसके प्राचीनतम और श्रेष्ठतम प्रतीक ध्वनि द्वारा संघटित वे रूप हैं जो मानव विकास के साथ-साथ विकसित होते चले आ रहे हैं और जो समय समय पर यत्र तत्र विकीर्ण रूप में मिलते रहते हैं । भाषा और मनुष्य का विकास सदा से अन्योन्याश्रित रहा है। ज्यों ज्यों मनुष्य जगत के अर्थ की गहनता और विस्तार में प्रवेश करता गया त्यों त्यों उसकी अभिव्यक्ति के लिये उसका यह भाषा रूपी साधन अधिक सबल और सक्षम होता गया । इसी प्रकार मानव ने भी भाषा के माध्यम से जगत के गूढ़तम अर्थ को समझकर अपना विकास किया। भाषा के द्वारा मनुष्य ने जीवन के गंभीर रहस्यों को खोजा, उसके तत्वों पर चिन्तन-मनन किया, और उन्हें जीवन के व्यवहार योग्य बनाने के लिये भावों और विचारों की सृष्टि में स्थापित किया । सृष्टि और संस्कृति के विकास के साथ ज्यों ज्यों भाषा में विकास हुआ, वह अधिकाधिक व्यवहार योग्य होती गई, उसके रूप में परिवर्तन होता गया । ध्वनि और अर्थ में अधिकाधिक साम्य होता गया । भाषा में अर्थ की स्थिति स्थापना के हेतु विविधता और रूपात्मकता बढ़ी । पृथ्वी पर अनेक जातियों की सृष्टि हुई, उनका विकास तथा प्रसार हुग्रा । उनके विकास और ह्रांस के साथ उनकी भाषा का भी विकास और ह्रास होता गया । अनेक जातियां कहीं कहीं अपनी भाषा के अवशेषों को सुरक्षित भी कर गई । इनमें उच्चारण ध्वनि सबसे प्राचीन और परम्परागत अवशेष रहा और उसके पश्चात् रूप । ध्वनि और रूप में भाषा के विकास का इतिहास छिपा है । इस इतिहास में भाषा और उसको बोलने वाली जाति के उद्गम, विकास, हास, परिवर्तन आदि अनेक स्थितियों की खोज की जा सकती है । भाषा के इतिहास से मानव जाति के इतिहास का भी उद्घाटन होता है । भाषा की स्थिति - उसका उद्गम, विकास, ह्रास प्रादि उसके बोलनेवालों पर निर्भर करती है। बोलनेवालों की उच्चारण और रचना - सम्बन्धी प्रवृत्तियों तथा उन पर प्राकृतिक सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि प्रभावों के कारण भाषा की शक्ति न्यूनाधिक होती रहती है । इनके द्वारा भाषा के उद्गम, विकास, ह्रास, परिवर्तन आदि को सक्रिय पोषण मिलता है । ये ही प्रवृतियां जब किसी भाषा की अपनी हो जाती हैं तो भाषा का स्वतन्त्र अस्तित्व सामने श्रा जाता है । अंतः हमें यह खोजना है कि वे कौन सी भाषा प्रवृतियां हैं जो राजस्थान की अपनी हैं । भारत के जिस प्रदेश को हम आज राजस्थान कहते हैं; वह भाषा की दृष्टि से कोई पूर्ण इकाई नहीं हो सकती । राजनैतिक सीमाएँ भाषा की सीमाओं से बहुत कम मेल खाती हैं। एक ही भाषा की सीमा में दो राजनैतिक सीमाए देखी जाती हैं । भाषा की सीमाएं उसके बोलने वाले लोगों के ऊपर निर्भर करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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