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________________ ४] जवाहिरलाल जैन भरे खूब काँप रहा था । श्राखिर सारा दिन इस तरह चलने के बाद एक छोटे से गांव के पास मैं पहुंच गया । संध्या हो गई थी, अंधेरा छा रहा था और आकाश में काली घटाए उमड़ रहीं थी । ऐसी स्थिति में रास्ते के पास ही एक किसान का घर दिखाई दिया। किसान का घर अन्दर से बन्द था । उसके दरवाजे के आगे छोटा सा चौतरां था । उस पर गाय भैंस को बांधने के लिए खाखरे के पत्तों से ढका हुआ एक छोटासा छप्पर था । उसके नीचे जाकर मैं थरथराता हुआ अपने हाथ पैर सिकोड़ कर बैठ गया। मेरी चलने की शक्ति भी प्रव नहीं रही जिससे मैं गांव में जाकर कहीं किसी ठीक जगह पर आलू कोई घंटे बाद एक बाहर की स्त्री उस किसान के घर पर आई और किसान का दरवाजा खड़खड़ाया । अन्दर से किसान ने आकर दरवाजा खोला और उसको उस स्त्री ने पूछा कि जानवर कहाँ बांधे है ? इतने में उसकी नजर उस छप्पर के एक कौने में हाथ पैर सिकोड़ कर बैठे हुए अधेरे में मुझ पर पड़ी। पहले तो वह स्त्री चौंक गई कि यह कोई भूत श्राकर बैठा है। किसान तुरंत प्रदर से एक घासलेट के तेल से जलती हुई चिमनी लेकर आया और उजाले में मेरी ओर प्रांखें फाड़फाड़ कर देखने लगा। मुझे कुछ ज्वर सा भी हो रहा था पर वह किसान जरा समझदार था मुझे देखकर वह घबराया डरा नहीं परंतु धीरे से पूछने लगा कि अरे भाई तू कौन है और यहां यौं किस लिए बैठा है ? मैंने कहा-पटेल मैं एक घनजान प्रतिथि हूँ और उज्जैन की तीर्थ यात्रा के लिए जा रहा हूं। आज दिन भर पिछले गांव से चलता रहा और रास्ता भूल गया इसलिए इस अंधेरी रात मैं और न रिश की झड़ी में यह एक सूना सा छप्पर देखकर विश्राम लेने की दृष्टि में म्राकर बैठ गया हूं किसान के मन में मेरी बात सुनकर दया श्राई और कहा कि "बाबा ! चलो तुम अंदर घर में आकर बैठ जाओ, यहाँ बारिश प्रावेगी तो तुम को बहुत दुख होगा। मैं उस किसान के प्रेम वचन से कुछ शांति का अनुभव करता हुमा मकान के दर जिधर गाय-भैंस बंधी हुई भी उधर ही एक कौने में पड़ी हुई चारपाई पर बैठ गया। किसान मुझसे कई बातें पूछने लगा लेकिन उसका सही उत्तर मैं देना नहीं चाहता था । मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि, बाबा, मैं किसी दूसरे देश का एक अतिथि हूं - तीर्थयात्रा के निमित्त इसी तरह घूमता रहता हूं। जहां कुछ कोई खाने को दे देता है तो वह खा लेता हूं और ठहरने करने के लिए कोई स्थान दे देता है तो वहां रुक जाता हूं । इसी तरह से मैं घूमता हुआ यहां पहुँच गया हूं। मुझे उज्जैन की यात्रा करनी है इसलिए कल उधर जाना चाहता हूं। किसान ने कोई विशेष बात पूछने की इच्छा नहीं की और मुझे एक उदार की रोटी और कटोरी में दूध लाकर दिया क्योंकि उसको मेरी बात से मालूम हो गया था कि मैं सारे दिन का भूखा हूं। मैंने वह रोटी दूध के साथ खाना शुरू किया उस समय मेरे मन में आया कि पिछले वर्षों तक जो साधुचर्या का बड़ी निष्ठापूर्वक और मुक्ति की प्राप्ति की कामना से अनुसरण किया उस चर्या का भाज एकदम सहसा कैसे विसर्जन हो गया। मैं स्वयं श्राश्चर्य में निमग्न हो रहा था कि पिछले ८ वर्षों तक सूर्यास्त के बाद अन्न दूध प्रादि तो क्या पानी की बूंद भी मुंह में नही डाली थी उसी चर्या का भंग भाज के इस दिन रात्रि में मैं भूखा प्यासा एक अनजान किसान के घर में पशुओं के पास बैठा बैठा ठंड़ी जुवार की रोटी खाकर कर रहा हूं । मैं फिर उस चारपाई पर लेट गया । किसान अपने सोने बैठने के कोठे में चला गया उसके घर में शायद दो एक स्त्रियों के सिवाय और कोई नहीं था। बारिश बरसनी फिर शुरू हो गई धौर उसकी झड़ी में सब निस्तब्ध होकर निद्रा देवी की गोद में लेट गये पर मुझे नींद कहाँ आनी थी। मैं पिछली रात की उस घड़ी से अपने दिन की चर्या का विचार करने लगा, जिस घड़ी में मैंने उज्जैन की लूरणमंडी में स्थित अपना धर्म स्थान छोड़कर संध्या के समय शौच जाने निमित्त बाहर निकल गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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