SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचार्य श्रीजिनविजयमुनि श्रीधर रामकृष्ण भाण्डारकर भी वहां आये हुये थे। उन्होंने किसनसिंह को बुलवाया। किसनसिंह ने उसे पूरा पढ़ा और उसे उत्तराध्ययन सूत्र बतलाया, जिसे श्री भंडारकर ने नोट कर लिया। यहां किसनसिंह को यह आवश्यकता अनुभव हई कि उन प्राचीन लिपियों का ज्ञान और अधिक प्राप्त करना चाहिए, पर जैन साधु स्वयं तो अधिक पढ़े-लिखे थे नहीं और गृहस्थ अध्यापक से पढ़ना पाप मानते थे, इसलिए उसके लिए नए ज्ञान प्राप्ति के द्वार अवरुद्ध लगे। कुछ समय बाद संस्कृत भाषा के एक ब्राह्मण पंडित से मिलना हुअा। उसने इनके उच्चारण की अशुद्धियां बतलाई और व्याकरण के ज्ञान की आवश्यकता पर जोर दिया तो किसनसिंह के मन में ज्ञान की जिज्ञासा और भी तीव्र बनी। अगले साल महाराष्ट्र के चातुर्मास के समय किसनसिंह ने मराठी भाषा सीखी और तुकाराम तथा ज्ञानदेव के अमंग कंठस्थ किये । यहां इसका परिचय एक ऐसे साधु से हया जो श्वेतांबर मंदिरमार्गी संप्रदाय को छोड़कर स्थानकवासी बना था । उसने बतलाया कि उस सम्प्रदाय में बड़े बड़े विद्वान हैं तथा ब्राह्मण पंडित उन्हें व्याकरण काव्य, अलंकार, पिंगल आदि पढ़ाते हैं, तो उनका झुकाव भी उस संप्रदाय की अोर हुअा, पर वे देखते थे कि मंडली से भागने की चेष्टा करने वाले साधु-साध्वियों को किस तरह मारा-पीटा जाता था और उस मंडली से निकल भागना कितना कठिन था, पर अब वे अधिकाधिक उद्विग्न होने लगे और वहां से चुपचाप किसी दिन रात को निकल भागने की सोचने लगे। इस साधु मंडली में से निकल भागने की कहानी अब आप उन्हीं की जबानी सुनिए : "ज्यों ज्यों मेग अनुभव बढता गया और कुछ ज्ञान भी बढ़ता गया त्यों त्यों मेरे मन में उस जीवनचर्या के संबंध में अनेक संकल्प विकल्प उठने लगे । मेरा मन उस चर्या में स्थिर नहीं होने लगा। अनेक प्रकार के भिन्न भिन्न विचारों का अध्ययन, मनन करता हया मैं कई प्रकार के व्यक्तियों के सम्पर्क में भी आता रहा। परिणाम में उस सम्प्रदाय से निकल जाने की मेरी भावना बलवती बनी और एक दिन मैंने संवत् १९५६ के आश्विन शुक्ला १३ के उस दिगठान गांव के बाहर की बगीची में हजारों लोगों के सम्मुख बड़े उत्सव के साथ जो साधु भेष मैंने पहना था उसको एक अंधेरी रात में गुपचुप उज्जैन के पास बहने बाली क्षिप्रा नदी में बहा दिया और मैंने फिर बदनावर के उस जैन मंदिर में रहते समय जैसा वेश धारण कर लिया अर्थात् एक फटी हुई धोती और शरीर ढकने के लिए एक मामूली पुरानी चादर के सिवाय कोई चीज उस समय मेरे पास नहीं थी। मैं उसके दूसरे दिन उज्जैन से नागदा जाने वाली रेल की पटरी पर चलने लगा। कहां जाना चाहिए इसका कोई लक्ष्य नहीं बना और मन में यह भय हो रहा था कि पिछली रात को गुपचुप मैं उज्जैन के जिस धर्म स्थान से निकल पड़ा उस स्थान वाले लोग मेरी खोज करने के लिए इधर उधर दौड़ते हुए मेरे पीछे न पा जावें और मुझे जबर्दस्ती डरा धमकाकर वापस अपने स्थान में ले जाकर बंद न कर दें इसलिए मैंने दो चार मील रेल की सड़क पर चलने के बाद खेतों का रास्ता पकड़ा। बारिश के दिन थे, इसलिए बीच बीच में खूब वर्षा हो जाती थी। मेरे पास सिवाय एक पुरानी लट्टे की चद्दर के और कोई वस्त्र नहीं था नीचे पहनने के लिए वैसी ही एक मामूली धोती थी। वैसी हालत में मैं जब जब पानी की मूसलाधार वर्षा आ जाती थी तो किसी एक दरख्त के सहारे बैठ जाता था। वर्षा कम होने पर फिर चल देता था । नजदीक में कहां पर कोई गांव है या नहीं इसका मुझे कोई पता नहीं था। न कोई उस बारिश की सघन झाड़ी में व्यक्ति ही दिखाई देता था। भूख अलग लग रही थी और ठंडी वर्षा के कारण शरीर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy