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________________ ६७ एक राजस्थानी लोक कथा का विश्लेषणात्मक अध्ययन के परिवार का भी यही हाल हुआ । जब सब से छोटे भाई धन्यक की स्त्री धूमिनी के खाए जाने की बारी प्राई तो वह उसे कंधे पर बिठा कर चुपचाप भाग गया। मार्ग में उन्हें एक घायल और लँगड़ा आदमी मिला । उसे भी उन्होंने साथ ले लिया और जंगल में एक कुटिया बना कर वे रहने लगे। धन्यक ने दया करके लँगड़े की सेवा को और वह स्वस्थ हो गया। एक दिन धन्यक शिकार के लिए गया हुआ था। पीछे से धूमिनी ने कामातुर होकर उस लँगड़े से प्रेम-प्रस्ताव किया। उसे अनिच्छापूर्वक धूमिनी की बात माननी पड़ी। जब धन्यक लौट कर आया तो उसे पानी लाने के लिए कुएं पर भेजा गया। वहां दगे से धूमिनी ने उसे कुएं में डाल दिया और वह लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा कर एक नगर में आ पहुँची। वहाँ वह आदर्श पतिव्रता के रूप में प्रसिद्ध हो कर धनवाली बन बैठी। पीछे से धन्यक किसी प्रकार कुएं से निकला और हताश होकर भीख मांगता हया उसी नगर में आ पहुँचा, जहाँ उसकी पतिव्रता पत्नी रहती थी। धूमिनी ने उसे पहिचान लिया और राजा से शिकायत करके उसके वध की आज्ञा दिलवा दी। वधस्थान पर धन्यक ने उस लँगड़े को बुलवाया। उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त सच-सच कह सुनाया। फलस्वरूप धूमिनी के नाक-कान काटे गए और धन्यक पर राजा की कृपा हुई। उपर्युक्त कथा-रूपों से प्रकट होता है कि आज जो कहानी राजस्थान के देहातों तक में प्रचलित है, वह बौद्धकाल में भी भारत में इसी प्रकार जनप्रिय थी। यह स्पष्ट है कि तत्कालीन लोक-कथाओं को ही बुद्धदेव के पूर्वजन्मों के साथ जोड़ कर जातक कथाएं उपस्थित की गई हैं । इसी प्रकार नीतितत्व हेतु यह लोककथा पंचतन्त्र में ग्रहण की गई है। दशकुमारचरित में यह कथा इस प्रश्न के उत्तर में है कि कर कौन है ? परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि पंचतंत्र की कथा में और राजस्थानी लोककथा में 'सत्यक्रिया' का प्रयोग विशेष रूप से हया है, जबकि अन्य दोनों रूपों में वह नहीं है। कथा में इस तत्व के प्रवेश का सूत्र अन्यत्र अनुसंधेय है। इस सम्बन्ध में श्रीमद् देवी भागवत् में वरिणत 'रुरु प्रमद्वरा' का उपाख्यान विचारणीय है, जिस का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है : मेनका अप्सरा की पुत्री का स्थूलकेश मुनि ने अपने आश्रम में पालन-पोषण किया और उसका नाम प्रमद्वरा रखा। जब प्रमद्वरा युवावस्था को प्राप्त हुई तो मुनिकुमार रुरु उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध हो गया और स्थूलकेश ने यह सम्बन्ध स्वीकार कर लिया। परन्तु विवाह के पूर्व ही निद्रित अवस्था में प्रमद्वरा को एक साँप ने काट लिया और वह मृतक अवस्था को प्राप्त हुई । इस पर रुरु ने बड़ा विलाप किया और एक देवदूत के सुझाव के अनुसार 'सत्यक्रिया' द्वारा अपनी आयु का अर्द्ध भाग उसने प्रमद्वरा को प्रदान करके पुनर्जीवित कर लिया। फिर उन दोनों का विवाह हो गया। यह प्रेमोपाख्यान भी भारत में बड़ा जनप्रिय रहा है। कथासरित्सागर में इसे उदयन और वासवदत्ता की कहानी में विदूषक के मुख से कहलवाया गया है। स्पष्ट ही पंचतन्त्र में संकलित लोककथा का रूप इस उपाख्यान से किसी अंश में मेल खाता है। यही स्थिति राजस्थानी लोककथा की है। उपाख्यान में पत्नी के प्रति पुरुष के प्रेम की पराकाष्ठा प्रकट की गई है, जो लोककथा में भी ज्यों की त्यों वर्तमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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