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________________ प्रास्ताविक आजन्म विद्योपासक आचार्य श्री जिनविजयजी के अभिनन्दन की योजना का एक मूर्तरूप प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ है। प्राचार्य श्री ने भारतीय पुरातत्व के संशोधन में अपना समग्र जीवन खपा दिया है, यह कहें तो अनुचित न होगा। श्री मुन्शीजी के भारतीय विद्या भवन के पाये के पत्थर ये ही हैं और महात्मा गांधी जी द्वारा स्थापित पुरातत्व मंदिर के भी ये ही संचालक रहे और जोधपुर स्थित राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की आत्मा भी आचार्य श्री ही है। मांडारकर चोरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट की स्थापना में भी इनका बलवत्तर योगदान था । केवल विद्याकार्य ही किया हो यह नहीं । राष्ट्रीय आन्दोलन में भी इन्होंने भाग लिया है और घरासरणा के सत्याग्रह में लाठियां भी खाई और जेल भी गये। आधुनिक संशोधन की पद्धति का परिज्ञान करने के लिये जर्मनी भी गये धौर लौट कर कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन में भी कुछ वर्ष रहे। अनेक बहुमूल्य ग्रन्थों का संपादन किया और अनेक ग्रन्थों को लुप्त होने से बचाया । परिणाम है कि आज उनकी ग्रांख की शक्ति नहींवत् रह गई है । । श्राचार्य श्री जिनविजय जी की अनिच्छा के बावजूद मित्रों ने ई० १९६३ में जब उन्हें ७५ वां वर्ष अभिनन्दन की बनाई । उन मित्रों के उत्साह के होते आचार्य श्री जिनविजय जी ६३ वर्ष के हो चुके उनका पूरा होने वाला था ई० १६६२ में एक योजना उनके हुए भी देश के कार्य में वे इतने व्यस्त थे कि अब जब अभिनन्दन ग्रन्थ छप कर तैयार हुआ है । यह भी एक संतोष की बात है और हमें उनका धन्यवाद ही करना चाहिये कि अन्य कार्यों में रत उन मित्रों ने एक विद्वान के अभिनन्दन के लिये उत्साह तो दिखाया। इस अभिनन्दन ग्रन्थ के लेखकों का मैं यहां विशेष रूप से प्राभार मानना चाहता हूं कि उन्होंने मेरी प्रार्थना को ध्यान में लेकर अपना अमूल्य समय निकाल कर इस ग्रन्थ के लिये लिखा ही नहीं किन्तु दीर्घ समय तक छपने की प्रतीक्षा भी करते रहे और अपने लेखों को वापस नहीं मांगा। इसकी छपाई का सारा कार्यं जयपुर में ही हुआ है और प्रूफ मेरे पास आये नहीं है अतएव छपाई में कोई क्षति रह गई हो तो उसके लिये भी लेखकगण कृपा पूर्वक क्षमा करें। इस अभिनन्दन ग्रन्थ में प्राचार्य श्री जिनविजय जी के विषय में लिखे गये प्रशस्ति लेखों के अलावा स्थायी मूल्य रखने वाले संशोधनात्मक लेख भी हैं। लेखों की भाषा गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी है। अतएव भारतीय प्राचीन विद्यानों में रस रखने वाले अभ्यासिजनों के लिये भी यह ग्रन्थ उपादेय होगा ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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