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________________ जैन संस्कृति और उसका अवदान -परम विदुषी साध्वी श्री कुसुमवती जी म. की सुशिष्या साध्वी गरिमा, एम. ए. - Q9 विश्व में अनेकानेक संस्कृतियाँ हैं। जब से लिये प्रेरणा देती है, वह इस दिशा में मार्ग निर्मित मनुष्य ने सामुदायिक जीवन आरम्भ किया और करती है और उसके अनुसरण के लिये भी मनुष्य परस्पर व्यवहार को आधार-भूमि बनने लगी, तभी को शक्ति प्रदान करती है। प्रत्येक व्यक्ति के पारसे आचरण संबंधी कतिपय आदर्शों ने आकार स्परिक व्यवहार को आदर्श रूप देने, उसे नियमित ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था और देश-काला- और नियन्त्रित करने की भूमिका का निर्वाह भी नुसार उसमें परिवर्तन-परिवर्धन भी होते रहे। संस्कृति द्वारा होता है। उच्च मानवीय आदर्शों इस प्रकार संस्कृति का अस्तित्व बना । परिस्थिति- को रूपायित कर संस्कृति मनुष्य ही नहीं प्राणिभिन्नता के कारण विश्व के विभिन्न भू-भागों में मात्र के कल्याण में लगी रहती हैं। जीवन को भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृतियों का प्रचलन हो आदर्श रूप में ढालने का साँचा संस्कृति है । मनुगया। इन अनेक संस्कृतियों में जैन संस्कृति को ष्यत्व तो देवत्व एवं असुरत्व का समन्वय होता अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसका आधारभूत है। कभी उसका एक लक्षण जागृत रहता है और कारण यह है कि किसी भी संस्कृति के लिए जो अन्य सुप्त रहता है, कभी यह क्रम विलोम हो अनिवार्य अपेक्षाएं हैं, उनकी पूर्ति जैन संस्कृति द्वारा जाता है। इस आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन बखूबी हो जाती है । अर्थात् संस्कृति के वांछित स्वरूप होता है कि वह भला है अथवा बुरा । देवत्व की से जैन संस्कृति सर्वथा संपन्न है । व्यापक दृष्टिकोण कल्पना श्रेष्ठ मानवीय व्यवहारों, गुणों और " को अपनाते हुए यदि संस्कृति के समग्र स्वरूप को लक्षणों के समुच्चय के रूप में की जा सकती है। । सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत करना हो, तो यह कहना इसके विपरीत मनुष्य की दुर्जनता, उसकी कुप्रवृहोगा कि-संस्कृति आदर्श जीवन जीने की एक त्तियाँ ही असूरत्व का स्वरूप हैं। सज्जनों में कला है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और देवत्व का प्राचुर्य और असुरत्व नाम मात्र को ही तदनुसार उसके जीवन का एक रूप व्यक्तिगत है होता है । संस्कृति व्यक्ति के इसी प्रकार के व्यक्तिऔर दूसरा रूप सामाजिक अथवा सामुदायिक है। त्व को संवारती है। देवत्व के भाग को अधिकाव्यक्ति के जीवन के ये दो पक्ष हैं। इस प्रकार यदि धिक विकसित करने और असुरत्व को घटाकर मनुष्य अपने ही जीवन को शान्तिमय और सुखपूर्ण न्यूनतम बना देने की अति महत्वपूर्ण भूमिका बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहता है, तो उसका संस्कृति द्वारा ही निभायी जाती है। संस्कृति इस जीवन-साफल्य आंशिक होगा। पूर्ण सफलता तभी प्रकार मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाती हैस्वीकार की जा सकेगी जब मनुष्य जाति, समाज, उसे मनुष्यता से सम्पन्न करती है। यह मनुष्य का देश, विश्व की शान्ति व सुख के लिये सचेष्ट हो। संस्कार करना है, जो संस्कृति द्वारा पूर्ण होता है । , संस्कृति इस प्रकार के सम्पूर्णतः सफल जीवन के मानवाकृति की देह मात्र मनुष्य नहीं है। इसके कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५६१ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ooo Yor Private & Personal Use Only JATT Education Internationar www.jainehibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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