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________________ जब, दो स्थितियों / विचारों में से किसी एक को चुनना हो । 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' में इसी आशय से द्विविधा - पूर्ण, भिन्न-भिन्न कथानकों को साथ-साथ समायोजित किया है सिद्धर्षि ने । इन कथाओं से, इनके पात्रों, परिस्थितियों और घटनाक्रमों को पुनः पुनः पढ़ने से, पाठक को अपने विवेक का प्रयोग, आत्मरक्षा / आत्मोन्नति के लिए कब करना है ? यह अभ्यास, भली-भाँति हो जायेगा । वस्तुतः जैनधर्म / दर्शन का यही अभिप्रेत है । इसी को सिद्धर्षि ने भी अपनी कथा का अभिप्रेत निश्चित करना उपयुक्त समझा । , निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि 'उपमिति भवप्रपञ्च कथा' की सम्पूर्ण कथा 'सांसारिकता' और 'आध्यात्मिकता' के दो समानान्तर धरातलों पर से समुद्भूत हुई है । भौतिक धरातल पर चलने वाली कथा से सिर्फ यही स्पष्ट हो पाता है कि अनुसुन्दर चक्रवर्ती का जीवात्मा, किन-किन परिस्थितियों में से होता हुआ मोक्ष के द्वार पर, कथा के अन्त में पहुँचता है। इन परिस्थितियों में उसके वैभव, समृद्धि, विलासिता आदि से जुड़े भौतिक सुखों का रसास्वादन भर पाठक कर पाता है । जब कि दीनता- दरिद्रता भरी विषम परिस्थितियों के चित्रण में उसके दुःख-दर्दों के प्रति, सहृदय पाठक के मन में बसी दयालुता द्रवित भर हो उठती है । ये दोनों ही भावदशाएँ, न तो पाठक के लिये श्र ेयस्कर मानी जा सकती हैं, न ही सिद्धर्षि के कथालेखन का लक्ष्य | बल्कि, सिद्धर्षि का आशय, स्पष्टतः यही जान पड़ता है कि जीवात्मा को जिन कारणों से दीन- पतित अवस्थाओं में जाना पड़ता है, उनका भावात्मक दृश्य, कथाओं के द्वारा पाठक ५६० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट Jain Exation International ) ( Des के समक्ष उपस्थित करके, उसे यह ज्ञात करा दिया जाये कि सुख और दुःख का सर्जन, अन्तःकरणों की शुभ-अशुभमयी भावनाओं से होता है । यदि उसके चित्त की वृत्तियाँ उत्कृष्ट शुभराग से परिप्लुत हों, तो उच्चतम स्थान, स्वर्गं तक ही मिल पायेगा; और उत्कृष्ट - अशुभराग का समावेश चित्तवृत्तियों में होगा, तो अपकृष्टतम-नरक में उसे जाना पड़ सकता है । इस लिये, वह इन दोनों - शुभ-अशुभराग से अपने चित्त / अन्तःकरणों को प्रभावित न बनाये। ताकि उसे स्वर्ग / नरक से सम्बन्धित किसी भी भवप्रपञ्च में उलझना नहीं पड़ेगा | बल्कि, उस के लिये श्रयस्कर यही होगा कि उक्त दोनों प्रकार की वृत्तियों / परिस्थितियों के प्रति एक ऐसा माध्यस्थ्य / तटस्थ भाव अपने अन्तःकरण में जागृत करे जो उसे सभी प्रकार के भव-विस्तार से बचाये ! उसकी यही तटस्थता, उसमें उस विशुद्ध भाव की सर्जिका बन जायेगी, जिसके एक बार उत्पन्न हो जाने पर, हमेशा हमेशा के लिये, किसी भी योनि / भव में जाने का प्रसंग समाप्त हो जाता है । 'उपमिति भवप्रपञ्च कथा' अपने इस उद्देश्य तक पहुँचाने में, जिन-जिन पाठकों को समर्थ बना देती है, वस्तुतः उतने ही सन्दर्भों में सिद्धर्षि का विशाल - महाकथा लिखने का श्रम, सार्थक बनता है तथापि, युगीन सामाजिक परिवेष को देखते हुए, इसमें रह रहा कोई पाठक इस महाकथा के अध्ययन / पठन श्रवण से, उक्त लक्ष्य की ओर भाव बना लेता है, तो भी मेरी का ग्रन्थ-रचना का उपक्रम, सकेगा । इत्यलम् ॥ चिन्तन मनन का दृष्टि से, सिद्धर्षि सार्थक माना जा साध्वीरत्न ग्रन्थ Date & Personal Use Only www.jainelibrary
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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