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________________ वाले मर्मज्ञ जन इस अन्तर से भली-भाँति अवगत मानना प्रत्येक मनुष्य का प्रधान दृष्टिकोण होना होते हैं । वे जानते हैं कि ये बाहरी साधन दुःख- चाहिए । मानव-जीवन इस चरम सुख की उप जनित चंचलता के प्रभाव को क्षणिक रूप से दुर्बल लब्धि से ही सार्थक होता है। * मात्र बनाते हैं, अन्यथा स्थायी सुख के प्रदाता ये मोक्ष-प्राप्ति कैसे ? : जैन दृष्टिकोण । नहीं हो सकते । भीतर से स्वतः विकसित होने प्रत्येक जिज्ञासु के मन में यह प्रश्न उबुद्ध वाले वास्तविक सूख को किसी बाह्य पदार्थ का होता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है । जब हम हा अपेक्षा रहती ही नहीं है। यह जान जाते हैं कि जिन सांसारिक सुखों के पीछे ये आभास मात्र कराने वाले अवास्तविक सुख हम अब तक भागते रहे हैं वे असार हैं, सुखाभास PM] दुःखों को दूर नहीं कर पाते । और सुख के अनुभव मात्र हैं, वास्तविक सुख नहीं हैं और मोक्ष ही E के लिए यह अनिवार्य परिस्थिति है कि दुःख का सच्चा और अनन्त सुख है, इसी मंजिल के लिए (3) सर्वथा प्रतिकार हो जाय ।। सुख और दुःख दोनों यह जीवन हमने धारण किया है तो उस मोक्ष को एक साथ रह नहीं सकते । जब तक जीवन में दुःख प्राप्त करने की लालसा का बलवती हो जाना म है, सुख तब तक आ नहीं सकता और सुख की अस्वाभाविक नहीं। असंख्य जीवन धारण कर अवस्था में दुःख भी इसी प्रकार अपना कोई चुकने के पश्चात् यह मूल्यवान जीवन जब सुलभ अस्तित्व नहीं रखता है। दुःखों का अभाव हुए होता हो, तो इसे कौन व्यर्थ ही नष्ट कर देना बिना सुख का आगमन सम्भव नहीं हो पाता। चाहेगा। यही कारण है कि सुखकामी मनुष्य हमें सुख के भ्रम से मुक्त हो जाना चाहिए । सच्चे मोक्ष-प्राप्ति का उपाय जानने और उसे अपनाने सुख तक पहुँचने के प्रयत्न हमें आरम्भ करने के लिए उत्सुक रहता है। यह औत्सुक्य, यह चाहिए। दुःख का उन्मूलन इसके लिए आवश्यक जिज्ञासा ही किसी मोक्षाभिलाषीजन की प्रथम द है । धन और काम की असीम और नियन्त्रणहीन पहचान हो सकती है। अभिलाषाएं मनुष्य के जीवन को दुःखमय बनाये संकेत रूप में इस बात की चर्चा हो ही चुकी हए हैं, क्योंकि वे धर्म-संयुक्त नहीं हैं । मनुष्य की है कि यह 'धर्म' ही है, जो मनुष्य को अनन्त सुख इच्छाएँ यदि मर्यादित और धर्मयुक्त हों, तो स्वयं की उपलब्धि कराने की क्षमता रखता है। धर्म उसका जीवन तो सुखी होगा ही, उसका जीवन उस नौका के समान है जो मनुष्य को दुःख की अन्य जनों के लिए भी सुखदायी हो जायगा । धर्म उत्ताल तरंगों से भरे समुद्र को पार कर, मिथ्या हमारी असीम इच्छाओं को नियन्त्रित कर, हमें सांसारिक सखों की चटटानों से बचाता हआ मोक्ष पूर्ण सुखी बनाता है। वास्तविक सुख अनन्त है, के अनन्त सुखमय उस पार तक पहुँचा देता है । असीम है, स्थायी है और इसकी परिणति कभी भी धर्म' को समझने के लिए इसके प्रायः ३ विभाग दुःख के रूप में नहीं होती । यही सुख की स्थिति कर लिये जाते हैं'मोक्ष' है। इसी स्थिति को प्रत्येक सज्ञान मनुष्य (१) सम्यग्दर्शन अपने जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। यही मानव- (२) सम्यकज्ञान और जीवन का परम और लक्ष्य हुआ करता है । यह (३) सम्यक्चारित्र मानना भी अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि मोक्ष केवल इन तीनों के संयोग से ही धर्म का समग्र स्वमानव योनि में ही सुलभ हो सकता है, अतः यह रूप खड़ा होता है। आचार्य समन्तभद्र की उक्ति देह धारण कर इसे ही मूल गन्तव्य और मन्तव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैGB १ 'तत्सुखं यत्र नासुखम्' ८५४० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ट साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International FOP Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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