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________________ सभी प्रसन्न हो जाते है, कुलदीपक की उपस्थिति से 'इच्छा' का निरोध सुख लाभ के लिए अत्यावमाता-पिता का मन हर्षित, उल्लसित और गर्वित श्यक है । यह निरोध अगाध शान्ति और सन्तोष रहता है । सन्तान सुख का कारण है । किन्तु यही से मन को पूरित कर देता है और ऐसे ही बातापुत्र बड़ा होकर जब कुकर्मी निकल जाता है, कुल वरण में सुख का पदार्पण सम्भव है । इस वास्तको बट्टा लगाता है, अभिभावकों का मस्तक विकता को समझे बिना, अपने से बाहर जगत के लज्जा से नत होने लगता है तो दुःख का कारण विषयों और पदार्थों में सुख का आभास पाने वाले भी बन जाता है। सच्चा सख तो सभी के लिए भ्रमित जन न्याय-अन्याय का विचार किये बिना और सभी परिस्थितियों में सुख ही बना रहता है। अधिक से अधिक मात्रा में ऐसे सुख को प्राप्त वह कभी दुःख का रंग धारण कर ही नहीं सकता। करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं। दुःख को सुख बाहरी पदार्थों से जिन सूखों की प्राप्ति की कल्पना समझकर उसका वरण करने की स्पर्धा में ही की जाती है, उनमें यह गुण नहीं होता। अतः उन्हें पीढ़ियाँ व्यस्त रहती हैं। यही कारण है कि संसार सुख कहा ही नहीं जा सकता। सुख की खोज में दुःख है। जब तक यह भ्रम बना रहेगा मनुष्य का स्वभाव है-यह सत्य है। इस खोज में दुःख का अस्तित्व भी बना रहेगा । जो जब तक व्यग्र मन इन बाहरी वस्तुओं में सुख का अनुभव इन कथाकथित बाह्य सुखों को सुख मानता रहेगा, कर भटक जाता है। उसे क्षणिक सन्तोष होने तब तक वह दुःखी बना रहेगा। वस्तुस्थिति यह लगता है कि सुख मिल गया, किन्तु इस सीमा तक है, कोई भी बाह्य पदार्थ न तो स्वयं सुख है और तो उसकी खोज सफल नहीं होती। उसे ऐसा सुख न ही वह किसी सुख का माधन है। सुख तो नहीं मिलता जिसके छोर पर दुःख की स्थिति न आभ्यन्तरिक वस्तु है, आत्मा का गुण है। हाँ, हो । सच्चे सूख को बाहरी किसी वस्तु के आधार जीव का स्वभाव यह सुख है, जो वास्तव में भीतर की अपेक्षा नहीं होती । न अर्थ सुख का साधन है, ही उत्पन्न होता है प्रायः बाहरी किसी पदार्थ न काम सुख का साधन है, वास्तविकता तो यह है का सहारा लेता है और अबोध मनुष्य अज्ञानवश कि 'इच्छाओं का निरोध' ही सुख का मूलाधार उन्हीं पदार्थों को सुख के आधार मान लेता है। है । अभाव यदि दुःख का कारण है तो अभाव को देहगत विकारों की क्षणिक शान्ति को मनुष्य सुख दूर करने के लिए अमुक वस्तु की प्राप्ति की इच्छा रूप में जानता है, किन्तु वास्तव में वे सुख होते होगी । यही इच्छा दुःख का मूल कारण बनती नहीं । वे तो विकारों के प्रतिकार मात्र हैं । भर्तृ- 2 है । यदि यह इच्छा पूर्ण हो जाती है और अमुक हरि की एक उक्ति से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो || वस्तु उपलब्ध हो जाती है, तो मनुष्य इस पर जाता है जिसका आशय है-'जब प्यास से मुख ( सन्तोष नहीं करता । वह उससे अधिक, और सूखने लगता है तो मनुष्य सुगन्धित, स्वादु जल अधिक की इच्छा करने लगता है। परिणामतः पीता है, भूख से पीड़ित होने पर शाकादि के साथ | इच्छा पूरी होकर भी सन्तोष प्रदान करने की भात खाता है, कामाग्नि के प्रज्वलित होने पर क्षमता नहीं रखती। इससे तो चित्त में विचलन, पत्नी का आलिंगन करता है । इस प्रकार रोग के अशान्ति और असन्तोष ही जन्मते हैं, जो दुःखरूप प्रतिकारों को मनुष्य भूल से सुख मान रहा है ।"1 में परिणत होते हैं। ऐसी दशा में अहितकारिणी- दृष्टि को बाह्य से समेटकर अन्तर् की ओर मोड़ने १ तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादुरुचितं क्षुधातः सन् शालीन् कवलयति शाकादिबलितान् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदढतरमालिंगति वध प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट GO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jan Education Internationar Yor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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