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________________ पहुँच गया । वृक्षों पर पके हुए आम हवा से झूम आचार्य ने कहा-वत्स ! यदि राग-द्वेष के रहे थे । बगीचे में घूमकर राजा आम के पेड़ के प्रवाह में न बहे, समभाव में अवगाहन करें तो इन्द्रियाँ नीचे विश्रान्ति हेतु बैठ गया । मंत्री ने निषेध किया परम मित्र की तरह उपयोगी हैं। यदि इन्द्रियों में पर वह नहीं माना । ज्योंही वह वृक्ष के नीचे बैठा राग-द्वष का प्रवाह प्रवाहित होने लगता है तो एक त्योंही एक आम का फल राजा की गोद में आकर इन्द्रियाँ शत्रु बन जाती हैं। गंगा का पानी पवित्र गिर पड़ा। राजा हाथ में लेकर फल देखने लगा। और निर्मल है पर जब गंगा में फैक्ट्रियों का, शहरों उसकी मीठी-मीठी मधुर गंध पर वह मुग्ध हो की गन्दी नालियों का पानी मिल जाता है तो गंगा गया । मंत्री राजा के हाथ से फल छीनना चाहता का पानी भी दूषित हो जाता है, उसकी पवित्रता था, पर राजा ने कहा-जरा-सा आम चूसने से नष्ट हो जाती है। जब इन्द्रियों के निर्मल ज्ञान में कोई नुकसान होने वाला नहीं है । मंत्री मना करता काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग और द्वेष का रहा पर राजा ने आम को चूस ही लिया और कूड़ा-करकट मिलता है तब इन्द्रिय ज्ञान भी दूषित देखते ही देखते राजा के शरीर में पुराना रोग उभर हो जाता है। उस समय इन्द्रियाँ शत्रु बन जाती हैं। आया और कुछ क्षणों तक छटपटाते हुए राजा ने राग-द्वेष का जब तक मिश्रण नहीं होता तब तक संसार से विदा ले ली।। इन्द्रिय-ज्ञान गंगा के पानी की तरह निर्मल रहता है प्रस्तुत उदाहरण भगवान् महावीर ने अपने पर राग-द्वेष के मिश्रण से वह विषाक्त बन जाता है। पावापुरी के अन्तिम प्रवचन में दिया है और कहा हम जैनागम साहित्य का गहराई से अनुशीलन है जिस प्रकार राजा अपथ्य आहर कर अपने करें तो यह सत्य हमें सहज रूप से समझ आ आपको, अपने राज्य को गंवा बैठा, वैसे ही संयमी सकेगा। इन्द्रियाँ केवलज्ञानियों के भी होती हैं। वे साधक इन्द्रियों के प्रवाह में बहकर अपने संयम भी चलते हैं किन्तु उनकी इन्द्रियों में राग-द्वष का धन को गंवा देता है। इन्द्रियाँ उच्छृखल हैं जो मिश्रण न होने से उनको केवल ईपिथिक क्रिया इसके प्रवाह में बहता है, वह साधना के पथ पर लगती है। साम्परायिक क्रिया नहीं। ऐर्यापथिक नहीं बढ़ सकता एतदर्थ ही शास्त्रकारों ने इन्द्रिय क्रिया में राग-द्वेष न होने से कर्म बन्धन नहीं संयम पर बल दिया है। इन्द्रिय संयम करने वाला होता । भगवती सूत्र में स्पष्ट वर्णन है कि केवलसाधक साधना के पथ पर निरन्तर बढ़ता है। ज्ञानी को पहले समय में कर्म आते हैं, दूसरे समय एक शिष्य ने आचार्य से जिज्ञासा प्रस्तुत की- में वेदन करते और तीसरे समय में वे कर्म निर्जरित शास्त्रों में लिखा है कि इन्द्रियाँ प्रबल पुण्यवानी से हो जाते हैं। कर्म बन्धन के लिए असंख्यात समय प्राप्त होती हैं । एकेन्द्रिय अवस्था में केवल एक ही चाहिए और बिना राग-द्वेष के कर्म का बन्धन नहीं । इन्द्रिय होती है पर ज्यों-ज्यों अकाम निर्जरा के होता। जब इन्द्रियों रूपी तारों में राग-द्वेष का करंट द्वारा प्रबल पुण्य का संचय होता है तब क्रमशः प्रवाहित होता है तभी कर्म बन्धन होता है इसीलिए इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। आप पुण्य से प्राप्त उन ज्ञानियों ने प्रेरणा दी कि इन्द्रियों का संयम करो। इन्द्रियों के नियन्त्रण हेतु क्यों उपदेश देते हैं ? हमारी इन्द्रियां बहिर्मुखी हैं। वे बाहर के क्योंकि बिना इन्द्रियों के न ज्ञान हो सकता है, न पदार्थों को ग्रहण करतो हैं और राग-द्वष से संपृक्त है। ध्यान हो सकता है। इसलिए इन्द्रियाँ हमारी शत्रु होकर कर्मों का अनुबन्धन करती है जितना नहीं मित्र है। विकास के मार्ग पर हमें अग्रसर अधिक तीव्र राग या द्वेष होगा उतना ही अधिकार करने वाली है। फिर उनके नियन्त्रण का उपदेश । बन्धन होगा, निकाचित कर्म बन्धन का मूल कारण क्यों ? इन्द्रियों में राग-द्वष का तीव्र प्रवाह * सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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