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________________ जो बात कही कि मेरे मित्र मर गये हैं। बिल्कुल जैन साहित्य में वर्णन है कि अढाई द्वीप के सही है । धन्य हैं आपकी सहिष्णुता को, क्षमा को। बाहर एक अष्टापद नाम का पक्षी होता है । अन्य आप परीक्षा की कसौटी पर खरे उतरे हैं। पक्षियों की तरह वह जमीन पर या वृक्ष पर किसी संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा-सेठ ! आप घोंसले में बच्चा नहीं देता। अनन्त आकाश में निरर्थक प्रशंसा के पुल बाँध रहे हैं। मैंने कोई बड़ी उडान भरते समय ही भारण्ड पक्षी की मादा बच्चा बात नहीं की है । यह बात तो एक कुत्ता भी करता देती है और वह बच्चा जब जमीन पर गिरता है GAL है। उसे घर से निकालो, वह निकल जायेगा और तो चुम्बक की तरह जंगल में रहे हुए बारह हाथियों । तू-तू कर उसे बुलाओ तो वह पुनः चला आयेगा। को अपनी ओर खींच लेता है और बारह हाथियों मैं कुत्ते से तो गया गुजरा नहीं हूँ। आपने निकल को लेकर आकाश में उड़ जाता है ऐसा वीर होता ५ जाने के लिए कहा, मैं चला गया और आपने पुनः है वह अष्टापद पक्षी। जन्मते हुए बालक में जब बुलाया तो आ गया। इतनी अपार शक्ति होती है तो युवावस्था में उसमें । प्रस्तुत प्रसंग हमें चिन्तन करने के लिए कितनी शक्ति हो सकती है। यह हम सहज कल्पना है कि क्षमा की बात करना सरल कर सकते हैं। ऐसे वीर अष्टापद पक्षी यदि दस लाख है, पर समय पर यदि कोई हमारा तिरस्कार करता एकत्रित किये जायँ उतनी शक्ति होती है बलदेव में है उस समय क्रोध न आये यह सबसे बड़ी बात है। और बीस लाख अष्टापद पक्षी की शक्ति होती है क्रोध और मान दोनों सहचर हैं। जरा सा अपमान वासदेव में और चालीस लाख अष्टापद पक्षी की होने पर इन्सान अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रख शक्ति होती है एक चक्रवर्ती में। तीनों कालों के सकता । उसका अहंकार गरज उठता है कि मैं कौन चक्रवतियों को मिलाने पर जितनी शक्ति होती है हूँ? क्या तुम मुझे नहीं जानते ? मैं तुम्हें ऐसा छठी उतनी शक्ति एक देव में होती है और तीनों काल का दूध पिलाऊँगा कि तुम जीवन भर याद करोगे। के देवों की शक्ति मिलाने पर जो शक्ति होती है जैनधर्म ने धर्म के दस प्रकार बताये हैं । ठाणांग उतनी शक्ति होती है एक इन्द्र में और तीनों कालों सूत्र के दसवें स्थान में उन दस धर्मों का उल्लेख के इन्द्रों की शक्ति मिलाने पर उससे भी अधिक हुआ है। द्वादश अनुप्रेक्षा में आचार्य कुन्दकुन्द ने शक्ति तीर्थंकर अरिहंत की एक अंगुली में होती है। भी उन दस धर्मों का वर्णन किया है। आचार्य अरिहंत 'क्षमाशूर' होते हैं । इसलिए शास्त्रकार ने उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में, आचार्य वट्टकेर ने स्थानांग सूत्र में 'खंतिसूरा अरिहंता' कहा है। द मूलाचार में, नेमिचन्द्र सूरि ने प्रवचनसारोद्धार उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान ने स्पष्ट उद्घोषणा । में, जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यकचूणि में उन की है कि जो मेधावी पण्डित हैं, वे क्षमा को धारण दस धर्मों का उल्लेख किया है। कुछ क्रम भेद रहा करते हैं। कुरानशरीफ में भी लिखाहैजो गुस्सा है वर्णन करने में, पर सभी में एक स्वर से क्षमा पी जाते हैं और लोगों को माफ कर देते हैं, अल्लाको प्रथम धर्म माना है। ताला ऐसी नेकी करने वालों को प्यार करते हैं। क्षमा धर्म का प्रवेश द्वार है। किसी व्यक्ति को मोहम्मद साहब ने अपनी तलवार की मूठ पर किसी मकान में प्रवेश करना है तो मुख्य द्वार से ये चार स्वर्ण वाक्य खुदवाये थे कि १. तेरे साथ यदि प्रवेश करता है। वैसे ही क्षमा धर्म का प्रवेश द्वार कोई अन्याय करे, तो तु उसे क्षमा कर दें। २. काटहै बिना क्षमा के धर्म में प्रवेश नहीं होता। क्षमा कर जो अलग कर देता है, उसके साथ मेल कर। करना कायरों का काम नहीं, जो वीर होते हैं वे ही ३. बुराई करने वाले के साथ भलाई कर, और ४. क्षमा कर सकते हैं। सदा सच्ची बात कह, तेरे खिलाफ भी क्यों न हो? ४७६ सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन | 100 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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