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________________ प्रवचन १. साधना का सार-तत्व समता मध्याह्न का समय था। चिलचिलाती धूप भिखमंगे ! तु इस समय कहाँ से चला आया ? हट्टे। चारों ओर फैली हुई थी। जमीन आग उगल रही कट्टे हो तो भी तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं * थी। गर्म-गर्म हवा चल रही थी। एक श्रेष्ठी के आती ? चले जाओ यहाँ से । द्वार पर एक भिक्षुक जाकर खड़ा हुआ । भिक्षुक की सेठ की फटकार को सुनकर संन्यासी ने शान्त। शाम वेशभूषा को देख कर श्रेष्ठी विस्मय-विमुग्ध मुद्रा में देहरी से बाहर कदम बढ़ाया कि श्रेष्ठी ने मुद्रा में बोला- आपने ये श्याम वस्त्र क्यों धारण पुनः आवाज दी। बाबा कहाँ जाते हो ? आओ किये हैं ? श्याम वस्त्र शोक के प्रतीक होते हैं इसी- बैठो, कुछ बात करेंगे । संन्यासी प्रसन्न मुद्रा में लिए राजस्थान के किन्हीं-किन्हीं प्रान्तों में विधवा लौट आया और ज्यों ही लौटकर वह आया त्यों ही बहनें ये वस्त्र धारण करती हैं। क्या आपका भी सेठ ने कहा-निर्लज्ज ! शर्म नहीं आती तुझे ? | कोई स्नेही मर गया है? जिस कारण आपने यह पुनः चला आया, चला जा यहां से। संन्यासी पूनः O अनोखी वेशभूषा धारण की है। उलटे पैरों लौट गया। दो कदम आगे बढ़ा ही था ____ संन्यासी ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा- कि पुनः सेठ ने आवाज दी। अरे ! बिना भिक्षा श्रेष्ठी प्रवर ! मेरे अत्यन्त स्नेही मित्रों की मृत्यु लिये कहाँ जा रहा है ? आ, भिक्षा लेकर के जाना। हो गयी है, जिनके साथ मैं दीर्घकाल तक रहा। संन्यासी पुनः चला आया। सेठ ने अपने नौकर को 112 श्रेष्ठी ने साश्चर्य पूछा-आपके किन मित्रों आवाज दी। यह भिखमंगा मान नहीं रहा है। की मृत्यु हो गयी ? आप तो सन्त हैं। सन्त के तो सुबह से ही इसने मेरा मूड बिगाड़ दिया। आओ, संसार के सभी प्राणी मित्र होते हैं । वे विशेष मित्र धक्का देकर इसे मकान के बाहर निकाल दो । सेठ कौन थे आपके ? _की आवाज सुनते ही नौकर आया और संन्यासी ____संन्यासी ने गम्भीर मुद्रा में कहा-मेरे चिर को धक्का देकर और घसीट का बाहर निकाला। साथी थे--क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष । संन्यासी गिरते-गिरते बचा। जिनके साथ मैं अनन्त काल तक रहा। प्रत्येक श्रेष्ठी ने संन्यासी के चेहरे को देखा वही जीवयोनि में वे मित्र मेरे साथ रहे। पर अब प्रसन्नता, वही मधुर मुस्कान उसकी मुखमुद्रा पर उनकी मृत्यु हो जाने से मैंने ये श्याम वस्त्र धारण अठखेलियाँ कर रही है । श्रेष्ठी अपने स्थान से उठा किये हैं । ये श्याम वस्त्र उनके वियोग के प्रतीक हैं। और संन्यासी के चरणों में गिर पड़ा। सेठ ने सुना, उसे आश्चर्य हुआ कि संन्यासी उसने निवेदन किया- मेरे अपराध को क्षमा अपनी प्रशंसा कर रहा है । यह अतिशयोक्तिपूर्ण बात करें । मैंने परीक्षा के लिए आपका अनेक बार अपहै। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ की मृत्यु होना मान किया। कठोर शब्दों में प्रताड़ना दी, पर कभी सम्भव नहीं। जब तक परीक्षण प्रस्तर पर आप बिना किसी प्रतिक्रिया के घर में आये और इसे कसा न जाये, तब तक कैसे पता लग सकता है बिना किसी प्रतिक्रिया के लौट गये। आपके चेहरे कि काम, क्रोध, मद, मोह की मृत्यु हो गई है। पर एक क्षण भी क्रोध की रेखा उभरी नहीं और ___ श्रेष्ठी ने क्रोध की मुद्रा बनाते हुए कहा-अरे न मान का सर्प ही फुफकारें मारने लगा। आपने का सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन ४७५ (O साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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