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________________ के दोनों प्रकार का मोक्षमार्ग प्राप्त होता है ! परमात्मभक्ति में उन सब मन्त्रों का जाप किया जाता है, जिनमें केवल अर्हत्, केवल सिद्ध, केवल आचार्य, केवल उपाध्याय, केवल मुनि या सभी को स्मरण किया जाता है । आचार्य विद्यानन्द ने लिखा है कि-परमेष्ठी की भक्ति (स्मरण, कीर्तन, ध्यान) से निश्चय ही श्रेयोमार्ग की संसिद्धि होती है । इसी से उसका स्तवन बड़े-बड़े मुनिश्रेष्ठों ने किया है। इन्द्रियों और मन को वश में करने का दूसरा उपाय श्रुतज्ञान है । यह श्रु तज्ञान सम्यक्शास्त्रों के अनुशीलन, मनन और सतत अध्यास से प्राप्त होता है । वास्तव में जब मन का व्यापार शास्त्रस्वाध्याय में लगा होता है-उसके शब्द और अर्थ के चिन्तन में संलग्न होता है तो वह अन्यत्र नहीं जाता। और जब वह अन्यत्र नहीं जायेगा, तो इन्द्रियाँ विषय-विमुख हो जावेगी। वस्तुतः इन्द्रियाँ मन के सहयोग से सबल रहती हैं। इसीलिये मन को ही बन्ध और मोक्ष का कारण कहा गया है । शास्त्र-स्वाध्याय मन को नियन्त्रित करने के लिए एक अमोघ उपाय है। इसी से "स्वाध्यायं परमं तपः" स्वाध्याय को परम तप कहा गया है। ये दो उपाय हैं इन्द्रियों और मन को नियन्त्रित करने के। इनके नियन्त्रित हो जाने पर ध्यान हो सकता है । अन्य सब ओर से चित्त की वृत्तियों को एक विषय में स्थिर करने का नाम ही ध्यान है। चित्त को जब तक एक ओर केन्द्रित नहीं किया जाता तब तक न आत्मदर्शन होता है और न आत्मज्ञान होता है, न आत्मा में आत्मा की चर्या । और जब तक ये तीनों प्राप्त नहीं होते तब तक दोषों और उनके जनक आवरणों की निवृत्ति सम्भव नहीं। तत्त्वानुशासन में आचार्य रामसेन कहते हैं कि जिस प्रकार सतत अभ्यास से महाशास्त्र भी अभ्यस्त हो जाते हैं उसी प्रकार निरन्तर के ध्यानाभ्यास से ध्यान भी सुस्थिर हो जाता है। वे कहते हैं कि 'हे योगिन् ! यदि तू संसार बन्धन से छूटना चाहता है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को ग्रहण करके बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादिक के त्यागपूर्वक निरन्तर सध्यान का अभ्यास कर । ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह का नाश कर चरमशरीरी योगी तो उसी पर्याय में मुक्ति प्राप्त कर लेता है, और जो चरमशरीरी नहीं है, वह उत्तम देवादि की आयु प्राप्त कर क्रमशः कुछ भवों में मुक्ति पा लेता है। यह ध्यान का ही अपूर्व माहात्म्य है।' निःसन्देह ध्यान एक ऐसा अमोघ प्रयास है जो इस लोक और परलोक दोनों में आत्मा को सुखी बनाता है। यह गृहस्थ और मुनि दोनों के लिये अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार हितकारी है। ध्यान के इस महत्त्व को समझकर उसे अवश्य करना चाहिये। तत्त्वार्थ सूत्र, ज्ञानार्णव आदि में इसका विशेष विवेचन है। -आप्तपरीक्षा, का. २१ १ श्रेयोमार्गसंसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । . इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौमुनिपुङ्गवाः ।। यथाऽभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युम हान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्थैर्य लभतेऽभ्यासवर्तिनाम् ॥ ३ वही, श्लोक २२३, २२४ । -तत्वानु. ८८ ४६७ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ 40 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International www.jairtelibrary.org For divate. Dersonalllse. Only
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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