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________________ - कन्हैयालाल गौड़ एम. ए. साहित्यरत्न, (उज्जैन) जैन परम्परा के व्रत/उपवासों का आयुर्वैज्ञानिक वैशिष्ट्य जीवन का नीतियुक्त आचरण ही मनुष्य का बढ़ सकता है और धीरे-धीरे सच्ची मानवता उसमें चारित्र कहलाता है । चारित्र का संगठन सदाचार आने लगती है। सच्चारित्र्य से स्वास्थ्य में भी से ही होता है । पर सदाचार के लिये यह ज्ञान वृद्धि होती है। होना चाहिए कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है वैदिक परम्परा में धर्म के नौ साधन बताये गए तथा इस ज्ञान से अच्छे आचरणों को ग्रहण करके हैं और जैन परम्परा में बारह व्रत । इन व्रतों को बुरे आचरणों को त्याग देना चाहिए। इस विधि धारण किये बिना सुचरितवान अथवा सुचारित्र्यवान को जैनधर्म में सम्यक्-चारित्र का ग्रहण कहा गया आयुष्मान/स्वस्थ नहीं बन सकता, रह सकता। है। इस सदाचरण अथवा सम्यक्चारित्र के लिए जैन परम्परा में कहे हुए बारह व्रतों में प्रारम्भिक ग्रहण करने और त्यागने योग्य क्या है ? याज्ञवल्क्य पाँच अणुव्रत, लघुव्रत कहलाते हैं । वे सच्चारित्र्यस्मृति के आचार नामक अध्याय में कहा गया है वान, आयुष्मान होने वाले जिज्ञासुओं के लिए ही कि हैं । बारह व्रतों में प्रथम अहिंसा ब्रत के विषय में __ अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहः। कहा दानं दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्म-साधनम्। पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, (चोरी न करना) उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, परोपकार, दया, मन का प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता, क्षमा । यह नौ बातें सबके लिए धर्म का स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥ साधन है । इसी प्रकार जैन परम्परा में बारह व्रत अर्थात-पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काया बताये गये हैं और इन बारह व्रतों को धारण करने यह तीन बल, श्वासोच्छवास और आयुष्य-यह से मनुष्य सदाचारी बन सकता है । इन व्रतों को दस प्राण कहलाते हैं और इन प्राणों का वियोग धारण करने वाले के हृदय में व्रत धारण करते करना ही हिंसा कही जाती है। हिंसा जनित । समय जो उच्चाभिलाषाएँ होती हैं, उनके पालन पदार्थ जीवों के इन दस प्राणों का वियोग करने की उसमें सामर्थ्य होनी चाहिए और जब अपने से ही उत्पन्न होते हैं और इसलिए इन वस्तुओं का धारण किये हुये व्रत को वह यथोचित प्रकार से त्याग अणुव्रत रूप से अहिंसा की प्रतिज्ञा ग्रहण पाल सकता है, तभी सच्चारित्र्य में उत्तरोत्तर आगे करने वाले को भी करना योग्य है ।। १ कर्तव्यकोमुदी द्वितीय ग्रन्थ (खण्ड १-२) रचयिता भारतभूषण शतावधानी पं. मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज पृ. ३०-३१ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 68 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International H ard Private Personal li se Only www.jainelibrary.org -
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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