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________________ BEE ....ME जे आसा के दास ते पुरुष जगत दास के दास । बाह्याचार-आसक्ति-अध्यात्मचिन्तन में आसा दासी तास की, जगत दास है तास ॥ पर्याप्त-स्वतन्त्रता होने के कारण भारत में महाकवि पार्श्वदास ने हितोपदेश पाठ में मनुष्य उपासना पद्धतियाँ विभिन्न रूपों में बढ़ती की बढ़ती हुई तृष्णा को उसके लक्ष्य में बाधक माना रही हैं। स्वार्थ की प्रबलता के कारण इन उपासना-पद्धतियों का लक्ष्य उपास्य के प्रति निष्ठा विषय कषाय चाय तृष्णावति होवै। को अनदेखा कर प्रदर्शन और रूढाचार की ओर हित कारिज की बात कबूं नहिं जोवै ।। मुड़ता गया है। इसके विरोध में निर्गण सन्तों ने धन उपार्जन करू विदेसां जावू । तो अपने उद्गार प्रकट किये ही, जैन नीतिकार भी वा राजा महाराजा . रिझवायूँ । इसकी उपेक्षा नहीं कर सके । मिथ्यात्व से छुटकारा ब्याह करू तिय कं, गहणां । पाये बिना शास्त्र पठन, कायाकष्ट, योगासन आदि लाणि बांटि जाति में, नाम करवायूँ । बाह्याचार के प्रति जैन कवि विनोदीलाल ने कबीर गेह चुनावू और सपूत कहलावू । जैसे तेवर ही दिखलाए हैंविषय कषाय बढ़ाय, बड़ा हो जावू । ग्रन्थन के पढ़े कहा, पर्वत के चढ़े कहा यूं तृष्ना वसि मिनष जन्म करि पूरो। कोटि लक्षि बढ़े कहा रंकपन में । हित कारिज करणे में रह्यो अधूरो ॥२०॥ संयम के आचरे कहा, मौन व्रत धरे कहा, द्यानतराय ने अपनी 'धर्म रहस्य बावनी' में तपस्या के करे कहा, कहा फिरै वन में । 3 तृष्णा को हृदयपीड़क कहा है। तृष्णाहीन व्यक्ति दाहन के दये कहा, छंद करैत कहा, बेपरवाह होकर अत्यन्त सुख पाता है जोगासन भये कहा, बैठे साधजन में । चाह की दाह जलै जिय मूरख, जो लों ममता न छूट, मिथ्या डोर ह न टूटे, बेपरवाह महासुषकारी ॥२॥ ब्रह्म ज्ञान बिना लीन लोभ की लगन में । चिन्ता-अप्राप्य जानकर भी किसी वस्तु को मुक्तककार हेमराज ने शास्त्रपठन, तीर्थस्नान प्राप्त करने के लिए मानसिक पीडा पाना चिन्ता तथा विरक्ति भाव को सदाचार के अभाव में का भाव है। चिन्ता को चिता के समान बतलाकर निरर्थक माना हैद्यानतराय ने पुरानी परम्परा का ही निर्वाह पढ़त ग्रन्थ अति तप तपति, अब लौं सुनी न मोष । किया है। दरसन ज्ञान चरित्त सों, पावत सिव निरदोष ॥२७।। ५ चिंता चिता दूह विष, बिंदी अधिक सदीव । कोटि बरस लौं धोइये, अढसठि तीरथनीर । चिंता चेतनि को दहै, चिता दहै निरजीव ॥१८॥ सदा अपावन ही रहै, मदिरा कुंभ सरीर ॥३०॥ भाग्यवश जो प्राप्त हो जाय, वह यथेष्ट है। निकस्यो मंदिर छोड़ि के, करि कुटम्ब को त्याग । Cil इस परम्परागत संस्कार के कारण द्यानतराय कुटी मांहि भोगत विष, पर त्रिय स्यों अनुराग ॥२८॥ | चिन्ता की स्थिति में कोई तर्क संगति भी नहीं बनारसीदास के गुरु पं० रूपचन्द अपनी रचना देखते 'दोहा परमार्थी' में तत्व चिन्तन के बिना बाह्याचार । रेनि दिना चिन्ता, चिता मांहि जल मति जीव । का कोई मूल्य नहीं मानते- . जो दीया सो पाया है, और न देय सदैव ॥४४॥ ग्रन्थ पढ़े अरु तप तपो, सही परीसह साहु। । -सुबोध पंचाशिका केवल तत्व पिछानि बिनु नहीं कहूँ निरबाहु ||६४॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ४०६ 6 00 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 63568 For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org RACOOOR CO0989000GR99990009900 AGYOXX -- Jain Education International
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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