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________________ परनारी परतषि, सील गुन भांजे छिन में । परनारी परतषि, जानि षोटी अति मन में । एह जानि भवि पर नारि को, 'लक्ष्मी' कहत रावन गये, तजी सील गुन धारि कै । कषाय - जैन आचार परम्परा में काम, क्रोध, मोह और मान चार कषाय माने गये हैं, जिनका त्याग श्रावक को आवश्यक माना है । नीतिकारों ने कषाय का विवेचन इस प्रकार किया है । । नरक भूमि निहारि कै। बैन चलाचल नैन टलावल चैन नहीं पल व्याधि भर्यो है । अंग उपांग थके सरवंग प्रसंग किए राय ने वृद्धावस्था की दुर्दशा का चित्रण सो कामातल करि कै दहत, करते हुए लोभ द्वारा नियन्त्रित रहने की भर्त्सना प्रेरणाप्रद स्वरों में की हैभूख गई घटि, कूख गई लटि, सूख गई कटि खाट पर्यो है । नाक सर्यो है । 'arva' मोह चरित्र विचित्र, गई सब सोभ न लोभ हट्यो है | ३६ - धर्मरहस्य बावनी ४०८ वृद्धावस्था में भी काम-वासना की निरन्तरता बने रहने की स्थिति बुधजन को पीड़ित करती है । तभी वे कामासक्त मनुष्य को प्रतारणा देते , हुए कहते हैं तो जोबन में भामिनि के संग, निसदिन भोग रचावै । अंधा धन्धे दिन सोबै, बूड़ा नाड़ हलावै । जम पकरे तब जोर न चाले, सैन बतावै । मंद कषाय हूवै तो भाई, भुवन त्रिक पब पावै ॥ Jain Education International देवीदास ने कामाग्नि को शीलरूपी वृक्ष को भस्म करने वाली बतलाकर व कामान्ध व्यक्ति को नीच, महादुःख का भोगी, अपने लक्ष्य में सर्वथा असफल होने वाला व्यक्ति प्रतिपादित कर उसकी कटु शब्दों में भर्त्सना की हैकाम अंध सो काम अंध सो पुरिष, सत्य करि सके न कारज । पुरिष, तासु परिणाम न आरज । काम अंध तह क्रिया मिले, इक रंग न कोई । काम अंध अधम नहीं, जग में जम सोई । गति नीच महा दुष भोगवस - षड पाठ सो सब काम कलंक फल । परम सील तरुवर सबल ॥ क्रोध होने की स्थिति में व्यक्ति को नीति अनीति का ज्ञान तो रहता ही नहीं, वह आत्म पीड़ित भी होता है । बुधजन का मत है नीति अनीति लखे नहीं, लखै न आप बिगार । पर जारे आपन जरै, क्रोध अगनि की झार ६७२ | काम, क्रोध, लोभ या मोह के अतिरिक्त चौथे कषाय अभिमान की निन्दा उसकी निरर्थकता के तर्क से प्रतिपादित की है। संसार में सहज गति से होने वाले निर्माण एवं विमाश के कार्यों में व्यक्ति स्वयं को कर्त्ता मान लेता है; यह एक भ्रम मात्र है । हेमराज गोदीका का कथन है होत सहज उत्पात जग, बिमसल सहज सुभाष । मूढ़ अहंमति धारि के, जनमि जनमि भरमाइ || तृष्णा - किसी वस्तु को हर स्थिति में प्राप्त करने की सामान्य इच्छा लोभ और तीव्रतम इच्छा तृष्णा कही जा सकती है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा प्रकृति की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने के बाद भी मनुष्य किसी अप्राप्य वस्तु के लिए चितिस रहता है तथा उसको प्राप्त करने की अमर्यादित चेष्टा करता है। एक अज्ञात कवि ने अपने ३२ दोहों में से एक दोहे में आशा या तृष्णा की स्थिति को पराधीनता-मूलक कहा है पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only न www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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