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________________ द इसके चित्रण ने जो चक्र बनता है, उसके स्वरों में श्री वर्धमानं ह्यभिनौम्यमानममानदेवैः परिणूयमानम् । लिखित अर्धालियों में क्रमशः ४, ८, १२ और १६ अहं महं तं सुगुणैरनन्तं पवित्रछत्राकृति-काव्यबन्धात् ।। संख्या के अक्षर चक्रावर्तित क्रम से एकत्र करने पर उनसे एक शार्दूलविक्रीडित पद्य भी पृथक् बनता है। -- कमल-बन्ध-स्तवः श्री उदयधर्मगणि १ जिसका पहला अक्षर श्लिष्ट होकर १९वें अक्षर के इस कृति का पूरा नाम 'महावीर जिन स्तवन' रूप में प्रयुक्त होता है। इसका द्वितीय पद्य इस है। १३वीं शताब्दी के बृहत् तपागच्छीय रत्नसिंह प्रकार है सूरि के शिष्य श्री उदयधर्म गणि द्वारा निर्मित यह र तनुते यन्नति जम्भजिद्राजी मुद्रिता दूतम् । स्तवन १८ पद्यों का है। १६ पद्यों से ३२ दलों का तं स्तुवे बीततन्द्राजी-भयं भावेन भास्वता ।।१।। कमलबन्ध' बनता है और सत्रहवां पद्य परिधि में (ER इस पद्य से 'मुशल बन्ध' भी बनता है। रुद्रट कवि लिखा जाता है, जिसके कुछ अक्षर पत्राक्षरों से । ने इस प्रकार के 'अष्टार चकबन्ध' का उदाहरण दिया। श्लिष्ट होते हैं । इस पद्य से कविनाम, काव्यनाम है और उसी से प्रेरित होकर यह स्तति १८ अक्षर और गुरुनाम भी प्राप्त होते हैं । यथातक पहुँचाई है । इसमें जो अन्य बन्ध बनते हैं, उन । सन्नमत त्रिदशवन्द्यपदं श्रीवर्द्धमानममलं विजित्तारम् । का सूचन निम्नलिखित पद्य में द्रष्टव्य है संस्तवीमि भवसागरपारं प्राप्तुरिच्छरुरु सद्गुणरत्नम् ।२। अन्तिम पद्य पुष्पिकारूप है, जो 'श्री सिद्धार्थचक्रोऽयोमुख-शूल-शङ ख-सहिते सुश्रीकरी-चामरे, नरेन्द्र नन्दन' इत्यादि पद से प्रारम्भ होता है। ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ सीरं भल्ल-शरासने असिलता शक्त्यातपत्रे रथः। १०-श्री वीरजिन-स्तव-श्री जिनप्रभ सूरि १४ १५ १६ १७ १८ १९ श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य श्री का कुम्भार्धम्रम-पड कजानि च शरस्तस्मात् त्रिशूलाशनी, जिनप्रभ के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि वे 'प्रतिचित्ररेभिरभिष्टुतः शुमधियां वीर ! त्वमेधिश्रिये।२०। दिन एक स्तुति की रचना करके ही आहार ग्रहण वस्तुतः इस स्तुति में १८ अन्य चित्र बन्ध हैं करते थे ।' इनकी सात सौ स्तुतियाँ थीं, जिनमें से । और १ यह महाचक्र बन्ध बनता है। अतएव इसे अब कुछ ही प्राप्त हैं। उनमें भी आकार चित्रकाव्य 'अष्टादश-चित्र-चक्र-विमलं' कहा ग रूप स्तुतियों में उपर्युक्त स्तोत्र अनेक चित्र-काव्यों ___ से संश्लिष्ट है । इसकी रचना में-'कमल (८ दल ८-वर्धमानजिन-स्तवः : श्रीधर्मसुन्दर(सिद्धार और २४), खडग, चक्र (षडर), चामर, त्रिशूल, ____ इसी शती के कनकसूरि के शिष्य धर्मसुन्दर धनुष, पद, बीजपूर, मुरज, मुशल, शक्ति, शर, एक द्वारा रचित वर्धमानजिन स्तव 'आतपत्र-बन्धमय हल, हार आदि बन्ध तथा लोम-विलोम पद्य, है। यह साधारण छत्र-बन्धों की अपेक्षा अपना निर्मिल हैं । विशेषतः यहाँ स्तुत्यनामगर्भ बीजपूर विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें १५ पद्य हैं और और कविनाम गुप्त षडरचक्र-तथा चामर बन्धों इसका चित्रण सिंहासन सहित उस पर लगे हुए की योजना महत्वपूर्ण है । स्तोत्र के प्रारम्भ में चित्र छत्र के समान है। इसका प्रथम पद्य इस प्रकार स्तवन की प्रतिज्ञा श्री जिन भ सूरि ने इस प्रकार की है १-२ इनके भी मूल शुद्ध पाठ वहीं द्रष्टव्य हैं। ३६४ 36 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 कम TE bor Sivate & Personal Use Only न ग्रन्थ Jain N ation International en www.jaineliberg
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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