SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ...... .. J. पद्माभेन धृतो येन समयो नयपावनः । ५-पञ्चजिन हार-स्तव : श्री कुलमण्डन सूरि स्वर्लोकेन कृतामानः पूयाज्जिनः स नो मनः ॥७।। कूलमण्डन सरि १३वीं शती ई. के अन्तिम इत्यादि। चरण में हुए थे। आपने अनेक स्तोत्रों की रचना की | ३- सर्वजिन-स्तव : श्री धर्मघोष सूरि थी। उनमें उपर्युक्त स्तोत्र २३ पद्यों में निर्मित है। प्रस्तुत स्तोत्र द्वारा कवि ने चौबीस दलवाले इसमें ४ पद्य ऋषभ, ४ शान्ति, ५ नेमि, ४ पार्श्व RO) 'कमल-बन्ध' की योजना की है। इसमें कूल ८ पद्य और ४ महावीर से सम्बद्ध हैं। 'हार-बन्ध' की IKE हैं जिनमें अन्तिम पद्य पुष्पिका-रूप है। पहला पद्य योजना पुष्पमाला के समान है तथा उसमें कहीं परिधि में लिखा जाता है अन्य छह पद्यों के प्रत्येक छोटे और कहीं बड़े पुष्प हैं, इसके कारण उनके दलों चरण के तीन-तीन खण्ड एक-एक पत्र में रहते हैं। की संख्या भी विषम है। मध्य में एक स्वस्तिक के चरण में ५-५ और ६ अक्षरों के बाद के अक्षर तीन आकार वाला चन्द्रक (लॉकेट) भी है । इस दृष्टि से बार आवृत्त होते हैं जो २४ लघुकणिकाओं में निवष्ट यह बन्ध अति श्रम साध्य तो है ही। इसका प्रारम्भहैं । प्रथम पद्य इस प्रकार है पद्य इस प्रकार हैनम्राखण्डल मौलिमण्डलमिलन्मन्दारमालोच्छलत् गरीयो गुणश्रेण्यरेणं प्रवीणं, परार्थे जगन्नाथ धर्म धुरीणम् । सान्द्रामन्द मरन्दपूर सुरभीभूतक्रमाम्भोरुहान् । धराधारमादिप्रभो रंगरम्यं, श्रीनाभिप्रभवप्रभुप्रभृतिकाँस्तीर्थकरान् शंकरान् स्तोष्ये साम्प्रत काललब्ध जननान् भक्त्या चतुर्विशतिम् स्तुवे त्वां बुधध्येय धौतारिवारम् ॥१॥ ॥१॥ ६-श्री वीर हरि-स्तव : श्री कुलमण्डन सूरि श्री धर्मघोष सूरि श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के इस स्तव में कवि ने विविध छन्दों का प्रयोग आचार्य थे तथा इनका समय सन् १२२८ ई० माना करते हुए १७ पद्यों में 'हार-बन्ध' की रचना की है। जाता है। हार में २० मणियाँ हैं । बीच में २-२ चतुर्दलात्मक ४-सर्वजिन साधारण स्तवन : श्री धर्मशेखर पंडित पुष्प, मध्य में 'नायक दल' और उस पर सप्तदल पुष्प तथा मध्य में दोरक ग्रन्थि है। पण्डित प्रवर श्री धर्मशेखर का यह स्तोत्र २१ पद्यों में निर्मित है। इसमें कवि ने '६४ दलवाले : ७-श्री वीरजिन स्तुति : श्री कुलमण्डन सूरि कमलबन्ध' की योजना की है। अन्तिम पद्य परिधि इस स्तुति में पहला और इक्कीसवाँ । T रूप है। इनका समय सन् १४४३ ई० (?) माना ME लविक्रीडित में हैं तथा अन्य पद्य २ से १६ तक अनु- TR गया है, किन्तु कुछ विद्वान इन्हें १३वीं शती का ष्टुप् में छन्द हैं । अन्तिम पद्य में विशेष रूप से १६ मानते हैं । रचना में गाम्भीर्य और कौशल दोनों " बन्धों द्वारा श्रीवीर की स्तुति करने का परिचय भी दिया है। किन्तु यह 'अष्टादशार चक्रबन्धमय स्तुति' है । ही स्पृहणीय हैं । यथा इसमें कणिकाक्षर 'त' है और उसी से सभी पद्यों जीयास्त्वं देव भद्र प्रवर कुट जगच्चन्द्र देवेन्द्रवन्धः । का आरम्भ होता है। इस प्रकार यह स्तति अत्यन्त काल) श्री विद्यानन्द दान-प्रवर-गुणनिधे धर्मघोष प्रवीणः ।। महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें 'एक चित्र बन्धरूप' और मुक्तासोम प्रभाली-धवल गुरुयशोनाथ नि:शेषविश्वं, 'अनेक चित्रबन्धरूप' दोनों प्रक्रियाओं का प्रयोग हुआ स्फारस्फूर्जत् प्रभावः शमदमपरमानन्दयाशु प्रकामम् ।।७॥ है। इसका और भी एक महत्व स्मरणीय है कि १ इस स्तव का मूलपाठ हमने 'महावीर परिनिर्वाण स्मृति ग्रन्य' (लालबहादुर शास्त्री) केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली, से प्रकाशित में 'महावीरस्य चित्रकाव्यार्चना' में दिया है। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास OR साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ducation Internatio or Private & Personal Use Only
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy