SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ OFEOne CL जोवन था, जिसमें आत्मगुणों के अनेक मोती धर्म अर्थात् सदाचरण स्थित रह पाता है । आज SAI अवस्थित थे । हमारा जीवन समुद्र की ऊपरी सतह चारों ओर अशुद्धता ही अशुद्धता है । यह अशुद्धता पर उछल कूद मचाने वाली लहरों का जीवन है, खाद्य पदार्थों से लेकर जीवन-व्यवहार के सभी ER जिसमें हलचल, उथल-पुथल और उत्तेजना ही उत्ते- क्षेत्रों में व्याप्त है । विडम्बना तो यह है कि प्रकृति CON जना है। महावीर का जीवन शाश्वत जीवन मूल्यों ने जिन तत्वों को अशुद्धता-निवारक माना है, वे के लिए समर्पित था, जिसमें त्याग, प्रेम, दया, भूमि, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि तत्व भी करुणा, मैत्री और सत्य का आलोक व्याप्त था पर अशुद्ध होते जा रहे हैं। इसका कारण है-अत्यन्त दे हमारा जीवन सम-सामयिक बाजार मल्यों का भोगलिप्सा और उसकी पूर्ति के लिए प्रकृति का 2|| जीवन है, जिसमें सांसारिक विषय-भोगों की प्राप्ति निर्मम शोषण ! यदि हम अपनी बृत्तियों पर संयम IAS की प्रतिस्पर्धा में मन्डी के भावों की तरह उतार- कर आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें, अपने EN) चढ़ाव आते रहते हैं। महावीर का जीवन हार्दिकता क्षणिक सुख के लिए दूसरों का शोषण न करें तो से संचालित था। हमारा जीवन यांत्रिकता से हमारी चेतना शुद्ध रह सकती है। शुद्धता की मा संचालित है। महावीर ज्ञानोपयोग और दर्शनोप- स्थिति ही स्वस्थता और स्वाधीनता की स्थिति | योग में विचरण किया करते थे। हम इन्द्रिय भोग है । जो शुद्ध नहीं है, वह स्वस्थ नहीं है और जो A और मनोरोग में विचरण करते रहते हैं। यही स्वस्थ नहीं है, वह तनाव-मुक्त नहीं है। वह कुण्ठा कारण है कि महावीर के सिद्धान्तों को हम बौद्धिक ग्रस्त है, हताश, निराश, दीन-हीन और शरीर Eqा स्तर पर समर्थन देते हैं, वाणी से उनका गुणान- रहते हुए भी मृत-मूच्छित और जड़ है । महावीर ने वाद करते हैं, पर कर्म से उसे आचरण में नहीं ला इस जड़ता के खिलाफ क्रांति की और सदा जाग्रत पाते, जीवन में नहीं उतार पाते । सिद्धान्त और रहने का रास्ता बताया। उठते-बैठते, चलते-फिरते आचरण का यह गतिरोध और द्वत भाव वर्तमान खाते-पीते जो सजग और सावधान है, वह कभी । सभ्यता की सबसे बड़ी दुःखान्तिका है। - अशुद्ध नहीं होता, अस्वस्थ नहीं होता। इस जागरण के लिए उन्होंने जो मार्ग का संकेत ___ महावीर ने बौद्धिक स्तर पर सिद्धांत का प्रति- किया वह मार्ग है-अहिंसा, संयम और तपरूप पादन नहीं किया। अपनी अनुभूति के क्षणों में मार्ग । अहिंसा अर्थात् किसी भी प्राणी को मनसदाचरण के आधार पर जो कुछ जीया, वही उन वचन और कर्म से दुःखी नहीं करना; जो दुःखी हैं, का धर्म सिद्धान्त बन गया। आज हम उनकी अनु- उनके दुःख को दूर करने में सदा सहयोगी बनना, भूतियों को आसानी से अपने जीवन के लिए प्रेरणा प्रेम, करुणा और मैत्री के भावों से उनके हृदय के स्रोत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, पर इसमें तारों के साथ अपने हृदय के तार जोड़ना, संकट के धिक है-हमारा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षण, समय उनकी रक्षा करना, उनकी स्वतन्त्रता में बाधक क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारों के प्रति कारणों को दूर करना । संयम का अर्थ है अपने मन आसक्ति, दूसरों को हीन समझने की वृत्ति और वचन और कर्म की पवित्रता, अपनी आवश्यकताओं दचित्तवृत्ति की वक्रता। इन बाधाओं को दूर की पूर्ति में न्यायपूर्वक, विवेकपूर्वक सामग्री का उपESY) कर महावीर के चरित्र को अपने लिए अनु- योग, अपने अर्जन का समाजहित और लोकहित के करणीय बनाने के लिए जीवन में शुद्धता और लिए विसर्जन, अपनी वृत्तियों का संयमन और १२ मन में सरलता का भाव आवश्यक है। आत्मानुशासन । तप का अर्थ है अपने मानसिक चेतना की शुद्धता और सरलता होने पर ही विकारों को नष्ट करने के लिए सदाचरण की आग IND OME चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelionary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy