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________________ नहीं करता है। जिससे वे सभी पूर्ण सत्य का भी चिन्तन के प्रति कदाग्रही बन जाते हैं। कदाग्रह से २ साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। आचार्य सिद्धसेन वस्तु स्वरूप में तो किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर का निम्नोक्त कथन समग्र स्थिति स्पष्ट कर हुआ, किन्तु विचारकों के विचार अवश्य विकृत देता है। होते हैं। ___"जावइया वयणपहा तावइया चेव हुन्ति कदाग्रह की उत्पत्ति का कारण नयवाया।" विकृति का कारण कदाग्रह है। अतः यहाँ 15 -सन्म तितर्क ३/३७ - ३/३७ कदाग्रह की उत्पत्ति के कारण का भी विचार कर र अर्थात् जितने भी वस्तु स्वरूप के प्ररूपक कथन हैं, ये एक-एक सत्यांश के बोधक हैं । सत्यांशों का वस्तु-विचार की परस्पर भिन्न मुख्य दो दृष्टियाँ ग्रहण करना उपादेय तो है, लेकिन किसी एक हैं-१. सामान्यगामिनी और २. विशेषगामिनी। विशिष्ट प्रणाली को ग्रहण करने से समग्र सत्य को सामान्यगामिनी धारा वस्तमात्र में समानता ही प्राप्त नहीं किया जाता है और अपने मान्य सत्य समानता और विशेषगामिनी असमानता असमाका भी निर्णय नहीं हो पाता है। दोनों के आंशिक नता ही देखती है। इन दोनों धाराओं का अस्तित्व व अपूर्ण निर्णय से भ्रम अवश्य उत्पन्न हो जाता परस्पराश्रित है और वस्तु का स्वभाव दोनों धाराओं का समन्वित पिंड है। ये दोनों धारायें । भ्रम उत्पन्न होने का दूसरा कारण यह है कि स्वानुभव के अन्तिम निष्कर्ष रूप में वस्तु के शुद्ध | प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्मों की सत्ता है। उन स्वरूप पर पहुँचती हैं, लेकिन दोनों कथन शैली की अनन्त धर्मों की सत्ता की स्वीकृति के लिए प्रमाण भिन्नता के कारण आपस में विरोधी होकर अपने ! की जरूरत नहीं है। ये अनन्त धर्म ही वस्तु का आप तक सीमित रहती हैं और उसके आधार पर स्वरूप है। उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता परस्पर विरुद्ध अनेक विचारधारायें उत्पन्न होने से नहीं होती है। वस्तु की इस स्थिति को सभी ये विचारधारायें अलग-अलग दर्शन नाम से प्रसिद्ध विचारकों ने स्वीकार किया है हो जाती हैं। 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।' सामान्यतः दर्शन कितने ? -धर्मकीति: प्रमाणवातिक २/२१ यद्यपि विश्व के मानवमात्र के चिन्तन का ये सभी धर्म स्व-पर के द्वारा विद्यमानता आधार उक्त दो धारायें होने से दर्शन के सामाअविद्यमानता का बोध कराते हैं । यथाप्रसंग मुख्य- न्यतः दो भेद हैं । किन्तु पश्चिम दृश्यमान विश्व गौण का भी उपचार करना पड़ता है। इसलिए का विचार करने वाला भौतिकवादी है। यदि उन अनन्त धर्मों को जानना कठिन नहीं है। वे किसी ने लीक से हटकर विचार किया तो हत्या के विषय बनते हैं। ज्ञान के द्वारा जाने करने से भी नहीं चुका। यनान के प्रसिद्ध दार्शभी जाते हैं। किन्तु शब्दों द्वारा एक साथ एक निक सुकरात को इसलिए विष देकर मार दिया समय में उनका कथन नहीं किया जा सकता है। था कि उसने भौतिकवादी विचारों का विरोध सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भी एक समय में वस्तु के एक धर्म किया था और दूसरे दार्शनिक अफलातूं (प्लेटो) को का कथन, वर्णन, प्रतिपादन करते हैं । उस स्थिति उसके ही भक्त शिष्य ने गुलाम बनाकर सरे बाजार में यथार्थता को नहीं समझने वाले अपने-अपने में बेच दिया था। . २६६ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 606850 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 Jain Education International Potrivate & Personal Use Onlv . www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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