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________________ 'आयुकर्म' के बराबर हैं, वे 'समुद्घात' नहीं करते हैं । और, परम-निर्जरा के कारणभूत तथा लेश्या से रहित अत्यन्त स्थिरता रूप ध्यान के लिये पूर्वोक्त रीति से योगों का निरोध कर अयोगि अवस्था प्राप्त करते हैं । गुणस्थानों की शाश्वतता अशाश्वतता - उक्त चौदह गुणस्थानों में से प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और त्रयोदशम् ये पाँच गुणस्थान लोक में 'शाश्वत' हैं । अर्थात् सदा विद्यमान रहते हैं । इन गुणस्थानों वाले जीव, लोक में अवश्य पाये जाते हैं। जबकि शेष नौ गुणस्थास 'अशाश्वत' हैं । 'पर-भव' में जाते समय जीव को पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान होते हैं। तीसरा, बारहवाँ और तेरहवाँ, ये तीन गुणस्थान 'अमर' हैं । अर्थात्, इनमें जीव का मरण नहीं होता है । पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां और ग्यारहवां, इन पाँच गुणस्थानों का, तीर्थंकर स्पर्श नहीं करते है । चौथे, पांचवे, छठे, सातवें, आठवें, इन पाँच गुणस्थानों में ही जीव 'तीर्थंकर'गोत्र को बांधता है । बारहवां, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये तीन गुणस्थान 'अप्रतिपाती' हैं । अर्थात् २६४ Jain Education International इन्हें प्राप्त कर लेने के पश्चात् जीव का पतन नहीं होता है । पहले, चौथे, सातवें, आठवें, नौवें, दशवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें, इन नौ गुणस्थानों को 'मोक्ष' जाने से पूर्व, जीव अवश्य ही स्पर्श करता है । दूसरा गुणस्थान, अधःपतनोन्मुख - आत्मा की स्थिति का द्योतक है। लेकिन, पहले की अपेक्षा इस गुणस्थान में 'आत्मशुद्धि' अवश्य कुछ अधिक होती है । इसलिए इसका क्रम, पहले के बाद रखा गया है । परन्तु इस गुणस्थान को 'उत्क्रांति' करने वाली कोई आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकल कर सीधे ही, तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है । और 'अवक्रांति' करने वाली कोई आत्मा चतुर्थ आदि गुणस्थान से पतित होकर, तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार 'उत्क्रांति' और 'अवक्रांति' करने वाली दोनों ही प्रकार की आत्माओं का आश्रयस्थान 'तीसरा' गुणस्थान है । संक्षेप में, गुणस्थान-क्रमा रोहण का स्वरूप यही समझना चाहिए । आत्मा के तीन प्रकार तिप्पयारो सो अप्पो पर-मन्तर बाहिरो दु हेऊणं । आत्मा के तीन प्रकार हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्सा और परमात्मा । बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर बढ़ना - ऊर्ध्वारोहण है । - मोक्ष पाहुड ४ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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