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________________ हैं, वे 'संयत' (मुनि) हैं। लेकिन ये संयत भी जब इस गुणस्थान को 'अपूर्वकरण' इसलिए कहा तक 'प्रमाद' का सेवन करते हैं, तब तक, 'प्रमत्त- जाता है कि इसमें निम्नलिखित पाँच बातें विशेष कार संयत' कहलाते रहते हैं। इन्हीं के स्वरूप-विशेष को रूप से होती हैं'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान कहते हैं। स्थितिघात- कर्मों की बडी स्थिति को अपवयद्यपि 'सकल संयम' को रोकने वाली प्रत्या- तनाकरण द्वारा घटा देना, अर्थात् आगे उदय में ख्यानावरण कषाय का अभाव होने से, इस गुण- आने वाले कर्मदलिकों को अपवर्तनाकरण के द्वारा जा स्थान में 'पूर्ण संयम' तो हो चुकता है, किंतु 'संज्व- अपने उदय के नियत समयों से हटा देना। लन' आदि कषायों के उदय से संयम में 'मल' उत्पन्न रसघात-बद्ध-कर्मों की तीब्र-फलदान-शक्ति को करने वाले प्रमाद के रहने से इसे 'प्रमत्त संयत' अपवर्तनाकरण के द्वारा मन्द करना । COAL कहते हैं । इस गुणस्थानवर्ती जीव, सावद्य कर्मों का गुणश्रेणी-उदय के नियत समयों से हटाए यहाँ तक त्याग कर देते हैं, कि पूर्वोक्त 'संवा- गए-'स्थितिघात' किए गए कर्मदलिकों को समयसानुमति' को भी नहीं सेवते हैं। क्रम से 'अन्तर्मुहूर्त' में स्थानान्तरित कर देना । ७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान-जो संयत (मुनि) गुणसंक्रमण-पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृतियों को 'बध्य Sविकथा' 'कषाय' आदि प्रमादों को नहीं सेवते हैं, मान'--शुभप्रकृतियों में स्थानान्तरित कर देना। वे 'अप्रमत्तसंयत' हैं। इनके स्वरूप-विशेष को अपूर्व स्थितिबन्ध-पहले की अपेक्षा अत्यन्त 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान अल्प-स्थिति के कर्मों का बांधना। of में संज्वलन-नोकषायों और कषायों का मंद-उदय इस आठवें गुणस्थान में आत्मा की विशिष्ट होने से व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुकते हैं। योगीरूप अवस्था आरम्भ होती है। छठे और SUB जिससे इस गुणस्थानवी जीव, सदैव ही ज्ञान, सातवें गुणस्थान में बारम्बार आने से विशेष प्रकार ध्यान, तप में लीन रहते हैं । की विशुद्धि-प्राप्त करके औपशमिक या क्षायिक'प्रमत्तसंयत' और 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान भाव रूप विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिए 'चारित्र८ में इतना अन्तर है कि 'अप्रमत्तसंयत' में थोड़ा सा मोहनीय'-कर्म का उपशमन या क्षय किया जाता भी प्रमाद नहीं रहता, जिससे व्रत आदि में 'अति- है, जिससे 'उपशम' या 'क्षपक' श्रेणी प्राप्त होने चार'- आदि सम्भव नहीं हो पाते । जबकि 'प्रमत्त वाली होती है। GB संयत' जीव के 'प्रमाद' होने से व्रतों में 'अतिचार' ६. अनिवृत्ति गुणस्थान-इसका पूरा नाम | लगने की सम्भावना रहती है। 'अनिवृत्ति बादर सम्पराय' गुणस्थान है। इसमें ८. निवृत्ति बादर गुणस्थान-इस गुणस्थान 'बादर'- स्थूल, 'सम्पराय'-कषाय, उदय में होता म का दूसरा नाम 'अपूर्वकरण' गुणस्थान भी है। जिस है, तथा सम-समयवर्गी-जीवों के परिणामों समानता Of 'अप्रमत्तसंयत' जीव की अनन्तानुबन्धी 'अप्रत्या- होने-भिन्नता न होने से, इस गुणस्थान को 'अनि ख्यानावरण' और 'प्रत्याख्यानावरण' रूप कषाय- वृत्ति बादर-सम्पराय' गुणस्थान कहते हैं। CH चतुष्कों की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को इस नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव भा निवृत्तिबादर' गुणस्थान कहते हैं। दो प्रकार के होते हैं-'उपशमक' और 'क्षपक' । १ प्रमाद के पन्द्रह प्रकार होते हैं चार विकथाएं-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चौरकथा, चार कषाएं-क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शन रसन, आदि पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति तथा निद्रा और स्नेह २ 'उपशम' श्रेणि और 'क्षपक' श्रेणि का आशय आगे स्पष्ट किया जा रहा है । २६० o तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Stara private Personalise Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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