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________________ F-A -MA N WAR यह होता है कि उसे सर्वज्ञ के वचन पर 'सम्यग्- करता है, और न 'मरण' को प्राप्त होता है। इस दृष्टि' की तरह अखण्ड अटूट विश्वास नहीं होता है। गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं २. सासादन गुणस्थान-जो औपशमिक सम्य- हो सकता है और न ही वह 'संयम' ('सकल संयम' क्त्वी जीव, अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से 'सम्य- या 'देशसंयम') ग्रहण कर सकता है। क्त्व' को छोड़कर 'मिथ्यात्व' की ओर झक रहा ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-'हिंसा' है, किन्तु, अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हआ है, आदि सावद्य-व्यापारों के त्याग को 'विरति' कहते || से जीव के स्वरूप-विशेष को 'सासादन-सम्यग्दृष्टि हैं । अतएव, जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी कहते हैं। अर्थात्, जिस प्रकार पर्वत से गिर कर प्रकार की 'विरति'-'व्रत' को धारण नहीं कर नीचे की ओर आते व्यक्ति की भूमि पर पहुँचने से सकता, वह जीव 'अविरत सम्यग्दृष्टि' होता है । पहले, मध्यकालवर्ती जो दशा होती है, वह न तो इसी के स्वरूप-विशेष को 'अविरत सम्यग्दृष्टि गुणपर्वत पर ठहरने की स्थिति है, न ही भूमि पर स्थान' कहते हैं। स्थित होने की; बल्कि दोनों-स्थितियों से रहित, इस गूणस्थानवी जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि | 'अनूभय दशा' होती है। इसी प्रकार, अनन्तानुबंधी कहने का कारण यह है कि सम्यग्दर्शन होने पर कषायों का उदय होने के कारण, 'सम्यक्त्व-परि- भी ‘एकदेश सयम' की घातक 'अप्रत्याख्यानाणामों से छूटने' और 'मिथ्यात्व-परिणामों के प्राप्त वरण' कषाय का उदय उसमें रहता है। इस तरह होने के मध्य की अनूभयकालिक-स्थिति में जो के जीवों में कोई जीव 'औपशमिक' कोई 'क्षायोपजीव-परिणाम होते हैं, उन्हें बतलाने वाली जीव- शमिक' और कोई 'क्षायिक' सम्यक्त्वी होते हैं। दशा का नाम है-'सासादन-गुणस्थान' ।। ५. देशविरतगुणस्थान-'सकल संयम' की ३. मिश्रगुणस्थान- इस गुणस्थान का पूरा घातक कषाय का उदय होने के कारण, जो जीव नाम है- 'सम्यग्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान' । इसी का सर्वसावध क्रियायों से सर्वथा तो नहीं, किंतु अप्रत्या-1 संक्षिप्त नाम है 'मिश्रगुणस्थान'। ख्यानावरण कषाय का उदय न होने से 'देश (अंश) ____ मिथ्यात्व-मोहनीय के 'अशुद्ध'--'अर्धशुद्ध' से, पापजनक-क्रियाओं से विरत' -.-'पृथक्' हो और 'शुद्ध', इन तीन पुंजों में से अनन्तानुबन्धी सकते हैं, वे 'देशविरत' हैं। इन जीवों के स्वरूपकषाय का उदय न होने से, 'शुद्धता' और 'मिथ्यात्व' विशेष को 'देशविरत'-गुणस्थान कहते हैं । देश- | के अर्धशुद्धपुद्गलों का उदय होने से जब अशुद्धता- विरत को 'श्रावक' भी कहते हैं। रूप अर्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब जीव की इस गुणस्थानवर्ती कोई जीव, एक व्रत लेते हैं, दृष्टि कुछ 'सम्यक्' (शुद्ध) और कुछ 'मिथ्या' कोई दो व्रत, कोई तीन-चार-पाँच आदि बारह व्रत (अशुद्ध) अर्थात्-‘मिश्र' हो जाती है। तक लेते हैं । ये व्रत 'अणुव्रत' 'गुणवत' और 'शिक्षा __ इस गुणरथान दशा के समय, बुद्धि में दुर्बलता व्रत' इन तीन विभागों में विभाजित हैं । कोई जीव सी आ जाती है । जिससे जीव सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्वों श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करते हैं । पर न तो 'एकान्त-रुचि' करता है, और न 'एकान्त- इस प्रकार, अधिक से अधिक व्रतों का पालन करने अरुचि'। किन्तु, मध्यस्थ भाव रखता है। इस • वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं, जो पापकर्मों में अनु प्रकार की दृष्टि वाले जीव का स्वरूप-विशेष मति के सिवाय, परिवार से किसी प्रकार का हो 'सम्यगमिथ्यादृष्टि' (मिश्र) गुणस्थान कहलाता है। सम्बन्ध नहीं रखते हैं। ___इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि सम्यग् ६. प्रमत्त-संयत गुणस्थान-जो व्यक्ति, पापमिथ्यादृष्टि जीव, न तो परभव की आयु का बन्ध जनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 301 २५६ 9 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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