SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री देहभिन्न, किन्तु केवलज्ञान आदि अनन्तगुणराशि झन के विकल्प से रहित समाधिकाल में आत्मज्ञान से अभिन्न शुद्ध-आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर पाने रूप ज्ञान के विद्यमान होने पर भी, बाह्य-विशेषके कारण, जीव जिस 'नामकर्म' को उपाजित करता रूप इन्द्रियों का ज्ञान न हो पाने के कारण आत्मा है, उसका उदय होने पर, जिस गुरु-लघु-देह को को 'जड़' भी माना गया है। इसी अवस्था में रागप्राप्त करता है, उसी के प्रमाण वाला वह होता द्वष आदि विभाव परिणामों का अभाव हो जाने | है । आत्म-प्रदेशों के उपसंहार-प्रसर्पण स्वभाव से से उसे 'शून्य' भी कहा जाता है। और, इसे अणु भी उसकी स्व-देह प्रमाणता सिद्ध होती है। मात्र शरीर वाला कहने के अभिप्राय में उत्सेधSaif जैसे एक दीपक, छोटे से कमरे में रखने पर, घनांगुल-असंख्येय भागमात्र लब्धि-अपूर्णसूक्ष्म-निगोद सा उस छोटे कमरे में रखी हुई समस्त वस्तुओं को शरीर को ही ग्रहण करने का भाव निहित है न (BEL जिस तरह प्रकाशित करता है, उसी तरह, लम्बे- कि पुद्गलपरमाणु के ग्रहण का भाव। चौड़े कमरे में उसे रख देने पर, उस पूरे कमरे में यहाँ 'गुरु' शब्द से एक सहस्र योजन परिमाण रखी हुई वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। इसी वाले महामत्स्य शरीर का, और 'मध्यम' शब्द से तरह आत्मा भी गुरु-बड़े आकार के शरीर में मध्यम-आकार वाले शरीरों का ही ग्रहण किया स्थित रहकर अपने प्रसर्पण-स्वभाव से गुरु देह जाता है। आशय यह है कि व्यवहारदृष्टि से प्रमाणता का धारक बनता है। जबकि सूक्ष्म-शरीर- आत्मा, समुद्घात अवस्था को छोड़कर, अपने स्थिति में उपसंहार-स्वभाव से सक्ष्म-शरीर प्रमाणता संकोच-विस्तार स्वभाव से गुरु-लघुदेह प्रमाण वाला का धारक बनता है । किन्तु, वेदना, कषाय, है। निश्चयदृष्टि से तो लोक-प्रमाण-असंख्येय विक्रिया, आहारक, मारणान्तिक, तैजस और केवली प्रदेश वाला है। नामक समुद्घात दशाओं में उसकी देह प्रमाणता देहान्तरता | नहीं रह जाती। सांसारिक दशा में, क्रमशः होने वाली विभिन्न . 'समुद्घात' का अर्थ होता है-'अपने मूल _ अवस्थाओं में एक ही आत्मा रहता है। चूंकि, शरीर को छोड़े बिना ही, आत्मा के प्रदेशों का शरीर - एक शरीर में एक ही आत्मा की प्रवृत्ति होती है, से बाहर निकलकर उत्तर देह की ओर जाना 126 ; इसलिए, उस शरीर की समस्त पर्याय-परम्परा में 10 स्पष्ट है, समुद्घात की उक्त सातों अवस्थाओं में, वही आत्मा रहता है, कोई नया आत्मा, अलगआत्मा, अपने शरीर में ही स्थित नहीं रह जाता, अलग पर्यायों में पैदा नहीं होता। यद्यपि व्यवहार वरन् तत्तत् समुद्घात दशा के अनुरूप, देह से बाहर दृष्टि की अपेक्षा से आत्मा और शरीर, दोनों ही, भी निकल पड़ता है। एक ही शरीर में नीर-क्षीर की तरह मिश्रित एक ही आकार में रहते हैं। तथापि, निश्चयदृष्टि की लोक-व्यापकता अपेक्षा से वह, देह में मिश्रित होकर भी एकरूपता ___आत्मा की गुरु-लघु देह प्रमाणता, अनुपचरित प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा, अपने असद्भूत व्यवहार-दृष्टि की अपेक्षा से ही है। स्वरूप के अनुसार देह से भिन्न ही होता है, किन्तु निश्चयदृष्टि से आत्मा लोकाकाश प्रमाण या वही आत्मा, जब शुद्ध-राग-द्वेष परिणामों से असंख्येय प्रदेशप्रमाण ही है । अर्थात् स्व संवित्ति संयुक्त होता है, तब, ज्ञानावरण-आदि कर्मों से समुत्पन्न केवलज्ञान को अवस्था में, ज्ञान की अपेक्षा मलिन होकर संसार में परिभ्रमण करता है ।28 से आत्मा को, व्यावहारिक दृष्टि से 'लोक व्यापक' यद्यपि आत्मा, शरीर आदि पर-द्रव्यों से भिन्न माना गया है। इसी तरह, पाँचों इन्द्रियों और है, तथापि, संसारावस्था में अनादिकम-सम्बन्ध से तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy