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________________ वे 'कर्म' हैं। इसलिए आत्मा, जब राग-द्वेष आदि हुईं हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि लोक के हर- 2 विभाव-परिणाम वाली अपनी क्रियाओं के साथ एक प्रदेश/स्थान में जीवों की सत्ता है और सवत्र तन्मय हो जाता है, तब उसकी 'तन्मयता' उसका ही कर्मबन्ध के योग्य पुद्गल वर्गणाएँ भी विद्यमान 'भावकर्म' बनती है। इसी आधार पर आत्मा हैं। इसलिए जीव, जहाँ भी जिस रूप में परिणमन भावकर्मों का ही कर्ता ठहरता है, द्रव्यकर्मों का करता है, वहाँ, वैसी ही कर्मवर्गणाएँ, उसके परिनहीं 121 णामानुसार बन्ध जाती हैं। इस स्थिति से स्पष्ट है | कि परिणाम और परिणामी में एकल्पता कि आत्मा, कर्मवर्गणाओं को बंधने के लिए प्रेरित र होती है, और परिणामों का कर्ता भी परिणामी ही तक नहीं करता। क्योंकि, जीव जहाँ है, वहाँ 102 होता है । इसलिए पुद्गल का परिणाम भी पुद्गल अनन्त कर्मवर्गणाएँ भी हैं। अतः उन दोनों का || ही होगा। परिणाम रूप क्रियाओं के साथ सारे के पारम्परिक बन्ध, स्वतः ही वहाँ हो जाता है । इससाथ द्रव्य तन्मय बन जाते हैं। अतः पूदगल का लिए, आत्मा, न तो पुद्गल पिण्ड रूप कार्माण- 718 परिणाम भी पुद्गल क्रियामय है, यह मानना वर्गणाओं का कर्ता ठहरता है, न ही उनका वह चाहिए। जो 'क्रिया' है, वही 'कर्म' है। इसलिए प्रेरक होता है । पुद्गल में पुद्गल द्रव्य कर्मरूप परिणामों का ही कथञ्चित् भोक्त त्व कर्तृत्व, एक स्वतन्त्र कर्ता के रूप में बनता है, न व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा को सुख-दुःख रूप कि जीव के भावकर्मरूप परिणामों का। इस तरह, पदगल कर्मफलों का भोक्ता माना जाता है। निश्चय-१४ पुद्गल रूप द्रव्यकर्मों का कर्तृत्व, पुद्गल में ही दृष्टि से तो चेतन भाव का ही वह भोक्ता ठहरता | ठहरता है। आत्मा में द्रव्यकर्मों का कर्तृव्व व्यव- है।25 जो आत्मा, स्व-शुद्ध-आत्मज्ञान से प्राप्त होने स्थित नहीं हो पाता 122 वाले पारमार्थिक-सुखामतरस का भी भोग नहीं द्विप्रदेशी आदि पुद्गल परमाणओं के स्कन्ध, करता है, वही आत्मा, उपचरित-असद्भूत व्यवहार स्निग्ध-रुक्ष-गुणों की परिणमन-शक्ति के अनुसार, दृष्टि की अपेक्षा से, पंचेन्द्रिय विषयों से उत्पन्न ( स्वतः ही उत्पन्न होते हैं । 'सूक्ष्म' और 'स्थूल' जाति इच्छित अनिच्छित सुख-दुःखों का भोक्ता होता है। के पृथ्वी-जल-अग्नि-वायुकायिक भी, स्निग्ध-रुक्ष इसी तरह, अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारदृष्टि की भावों के परिणामों से, पुद्गल स्कन्ध पर्यायों में अपेक्षा से अनन्तसुख-दुःखों के उत्पादक द्रव्यकर्मरूप 5 उत्पन्न होते हैं। इन परिणमनों में आत्माजीव की साता-असाता-उदय को भोगता है। यही आत्मा, आवश्यकता रंचमात्र भी अपेक्षित नहीं होती।23 अशुद्ध-निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से हर्ष-विषाद रूप अनादिबन्ध के योग से जीव अशुद्ध भाव में सुख-दुःख का भी भोक्ता है। जबकि शुद्ध निश्चय परिणमन करता है। इस अशुद्ध-परिणाम के बहि- दृष्टि की अपेक्षा से, परमात्मस्वभाव के परिचायक रंग/बाह्य-बन्धरूप निमित्त कारण को प्राप्त करके सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का, और इनसे उत्पन्न कर्म वर्गणाएँ, अपनी ही अन्तरंग शक्ति के बल पर अविनाशी-आनन्द-लक्षण वाले सुखामृत का भोक्ता आठ कर्मों के रूप में परिणमित होती हैं। चूकि ये हैं। कर्मवर्गणाएँ, स्वतः ही परिणमनशील हैं। इस- स्वदेह प्रमाणता लिए, इनके परिणामों का कर्ता भी आत्मा नहीं आहार, भय, मैथुन, परिग्रह-प्रभृति समस्त राग होता । ___ आदि विभाव, देह में ममत्व के कारण हैं। इनमें ) 'लोक' में सर्वत्र अंनतानंत कर्मवर्गणाएँ भरी आसक्ति होने के कारण और निश्चयदृष्टि से स्व B तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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