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________________ - - पूज्य गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज, श्री पुष्कर मुनि जी महाराज ठाणा दो से वर्षों के Ds पश्चात् उदयपुर पधारे । सद्गुरुवरों के आगमन से सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण छा गया। सद्गुरुणी 2 जी महासती श्री सोहनकुवर जी महाराज, महासती श्री कुसुमवती जी म० और महासती श्री पुष्पवती महा० आदि नवदीक्षिता साध्वियों को लेकर गुरुचरणों में पहुँची । वन्दन और सुख-साता पृच्छा के पश्चात् । गुरुदेव दोनों ही नवदीक्षिता साध्वियों को देखकर प्रसन्न हुए। उसी समय गुरुदेव ने दोनों के आगमिक a ज्ञान की परीक्षा भी ली। दोनों ही साध्वियाँ इस परीक्षा में समुत्तीर्ण रहीं । महास्थविर श्री ताराचन्दजी | महा० की आज्ञा से उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. ने महासती श्री सोहनकुवर जी महाराज को ! निर्देश देते हुए फरमाया-'लक्षणों के आधार पर ये दोनों साध्वियाँ प्रतिभासम्पन्न प्रतीत होती हैं। इनकी प्रतिभा का समुचित विकास हो सके इसलिये गुरुणी होने के नाते आपका कर्तव्य है कि आप इन दोनों के लिये संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ, जैन आगम साहित्य और उसके व्याख्या साहित्य को पढ़ाने के लिये आवश्यक व्यवस्था अनिवार्य रूप से करें। इन्हें इनका व्यवस्थित अध्ययन करावें। एकएक शब्द के अर्थ को समझने के लिये शब्दार्थ याद करना तो पल्लवग्राही पाण्डित्य है । यदि मूल भाषाओं NT पर इनका अधिकार हो गया तो फिर कैसा भी साहित्य क्यों न हो ये बिना किसी की सहायता के स्वयं ही उसके अर्थ का अभिप्राय न केवल स्वयं समझ लेंगी, वरन् किसी अन्य को भी सरलता से समझा || देंगी। सद्गुरुवर्यों के प्रथम दर्शन कर दोनों ही साध्वियाँ प्रसन्न थीं। उस पर गुरुदेव का आदेश सुनकर तो उनका हृदय आनन्दित हो उठा। अध्ययन के प्रति उनकी लगन तो प्रारम्भ से ही रही है । अब गुरुदेव के आदेश से तो उनकी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी। गुरुणीजी श्री सोहनकुँवर जी म. सा० ने सद्गुरुवर्य के आदेश को बहुत ही ध्यान से सुना । गहराई से इस बात पर चिन्तन किया। चिन्तन करने का कारण यह था कि उस युग में साधु-NA साध्वियाँ गृहस्थ पण्डितों से नहीं पढ़ा करते थे तथा पढ़ने पर प्रायश्चित्त दिया जाता था। ऐसी परिस्थिति में गुरुणीजी का चिन्तन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य था। एक ओर समाज की प्रचलित मान्यताएँ थीं और दूसरी ओर प्रतिभा के विकास का प्रश्न । सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुँवर जी म० ने विचार किया कि युग बदल चुका है । गृहस्थ कर वर्ग प्रबुद्ध हो रहा है। साधु-समाज इसी प्रकार यदि अध्ययन से कतराता रहा/वंचित रहा तो फिर गृहस्थ का नेतृत्व किस प्रकार कर सकेगा? उनकी ज्वलन्त समस्याओं का समाधान किस प्रकार कर सकेगा? पुरानो रूढियाँ और अन्धविश्वास कब तक मार्ग की बाधा बना रहेगा? होगा। गुरुणीजी साहसी और नवीन परम्पराएँ स्थापित करने, पुरानी रूढ़ियों को समाप्त करने, समाज में युगानुरूप परिवर्तन की पक्षधर थीं। उन्हें अपने गुरुदेव का उक्त आदेश समयोचित प्रतीत हुआ । इस- 15 लिए उन्होंने गुरुदेव के सुझाव को आदेश मानकर उसे कार्य रूप में परिणत करने का विचार किया। साध्वियों को पण्डित पढ़ायेंगे। इस बात को लेकर समाज में कुछ रूढ़िग्रस्त व्यक्ति ऊहापोह भी कर सकते हैं । किन्तु सत्य के लिए डर किस बात का ? महासतीजी ने दृढ़ निश्चय करके दूसरे दिन गुरुदेव के सम्मुख उपस्थित होकर निवेदन किया- "गुरुदेव ! मैं दोनों नवदीक्षिता साध्वियों का भविष्य उज्ज्वल और समुज्ज्वल देखना चाहती हूँ। इसलिए उनको व्यवस्थित अध्ययन कराऊंगी। किन्तु इस वर्ष वर्षावास की स्वीकृति सलोदा गाँव की हो चुकी है। उस गाँव में योग्य पण्डित का मिलना कठिन म ( १४० द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन -ee 5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ORG Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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