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________________ चाहिए ? २ - ध्येय - जिसका ध्यान करना है, वह वस्तु कैसी होनी चाहिए ? ३ – ध्यान के कारणों की समग्रता, अर्थात् सामग्री कैसी हो ? क्योंकि सामग्री के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है । आचार्य हेमचन्द्र ने ध्याता की योग्यता के सम्बन्ध में लिखा है- "जो प्राणों का अवसर आ जाने पर भी संयम-निष्ठा का परित्याग नहीं करता है, अन्य प्राणियों को आत्मवत् देखता है, अपने ध्येय, लक्ष्य से च्युत नहीं होता है, जो सर्दी, गर्मी और वायु से खिन्न नहीं होता, जो अजर-अमर बनाने वाले योग-रूपी अमृत, रसायन को पान करने का इच्छुक है, रागादि दोषों से आक्रान्त नहीं है, क्रोध आदि hari से दूषित नहीं है, मन को आत्माराम में रमण कराने वाला है, समस्त कर्मों में अलिप्त रहने वाला है, काम-भोगों से पूर्णतया विरक्त है, अपने शरीर पर भी ममत्व-भाव नहीं रखता है, संवेग के सरोवर में पूरी तरह मग्न रहने वाला है, शत्रु-मित्र, स्वर्ण-पाषाण, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान आदि में समभाव रखने वाला है, समान रूप से प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करने वाला है, प्राणिमात्र पर करुणा भाव रखने वाला है, सांसारिक सुखों से विमुख है, परीषह और उपसर्ग आने पर भी सुमेरु की तरह अचल- अटल रहता है, चन्द्रमा की भाँति आनन्ददायक और वायु के समान निःसंग - अप्रतिबन्ध विहारी है, वही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध साधक प्रशंसनीय और श्रेष्ठ ध्याता हो सकता है 1 ध्याता के चार लक्षण उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी शास्त्री ने इस प्रकार बताये गये हैं – (१) आज्ञा रुचि, (२) निसर्ग रुचि, (३) सूत्र रुचि और (४) अवगाढ़ रुचि । इन चार लक्षणों से धर्म - ध्यानी की आत्मा की पहचान की जाती है । धर्म-ध्यान के चार आलम्बन इस प्रकार हैं- (१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना और (४) धर्मकथा | धर्म-ध्यान की चार भावनाएँ बताई गई हैं - ( १ ) एकात्वानुप्रेक्षा, (२) अनित्यानुप्रेक्षा, (३) अशरणानुप्रेक्षा और (४) संसारानुप्रेक्षा । इन चार भावनाओं से मन में वैराग्य की लहरें तरंगित होती हैं । सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम हो जाता है और आत्मा शांति के क्षणों में विचरण करता है | 2 ध्यान के जितने प्रकार बताये गये हैं, उसी के अनुरूप उनके आलम्बन भी हैं । और अधिक विस्तार यहाँ अप्रासंगिक प्रतीत होता है। इस विवेचन से ही ध्यान के सम्बन्ध में धारणा स्पष्ट हो है । ध्यान एक उत्कृष्ट तप है, यह एक ऐसी धधकती ज्वाला है जिसमें कर्म दग्ध हो जाते हैं । ऐसे प्रशस्त ध्यान और आत्मकल्याणकारी स्वाध्याय में महासती श्री कुसुमवती जी म.सा. की विशेष रुचि उनकी भविष्य की महान साधना की प्रतीक थी । प्रथम चातुर्मास एवं सद्गुरुवर्यों के दर्शन - ज्ञानार्जन और गुरुसेवा करते हुए संवत् १६६४ का प्रथम चातुर्मास उदयपुर शहर में सम्पन्न हुआ । चातुर्मास के पश्चात् माघ शुक्ला त्रयोदशी संवत् १९६४ को उदयपुर निवासी श्री जीवनलाल जी बरडिया की आत्मजा सुन्दरकुमारी ने श्री सोहनकुँवर जी महाराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की । दीक्षोपरांत उनका नाम महासती श्री पुष्पवती जी महाराज रख गया । लघु गुरु बहिन श्री पुष्पवती जी को पाकर आपको हार्दिक प्रसन्नता हुई । दोनों गुरु बहिनों में सहोदरा बहिनों से भी अधिक स्नेह था । गुजरात, बम्बई, महाराष्ट्र, खानदेश और मालवभूमि को अपनी चरण रज से पावन करते हुए १. योगशास्त्र, ७ / २ से ७ । २. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ५६८ । द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन Jain Education International साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Lise Only १३६ G. www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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